(११६) बीजक कबीरदास । साखी । संयोगेका गुणरवे, विनयोगे गुणजाय ॥ हुत उपाय ॥६॥ जब मनको आत्माको संयोग होइहै तबही संकल्प होइहै औ तबहीं गुणहो- यहै अजब मनको आत्माको संयोग नहीं होइ है तबगुण जाई। कहेगुणौ नहीं है अरुसंकल्पी नहीं हैं। सोनर जेहैं ते जिह्वा सुखके कारण औ शिश्न ( इन्द्रिय ) सुखकेकारण बहुत उपाय करतभये औ मन औ आत्माको संयोग छौड़ावनको उपाय करतभये औ जे मन आत्माको संयोग छोड्यो है ते आपने स्वस्वरूप को प्राप्त भये हैं ॥ ६ ॥ इति चालीसवीं रमैनी समाप्ती ।। अथ इकतालीसवीं रमैनी। चौपाई। अंबुकिराशिसमुद्रकिखाई।रविशशिकोटि तेतिसौभाई॥१॥ मैंवरजालमें आसनमाड़ाचिाहतसुखदुखसंग न छाड़ा॥२॥ दुखकामर्म काहुनहिं पायावहुतभांतिके जग बौराया॥३॥ आपुहिवाउर आपुसयाना हृदयावसत रामनहिंजान॥४॥ साखी ॥ तेई हरि तेइ ठाकुरा, तेई हरिके दास ॥ जामें भया नयामिनी,भाभिनिचलीनिरास॥६॥ अम्बुकिराशिसमुद्रकीखाई। रविशशिकोटितेतसौ भाई १ भंवरजालमें आसनमाड़ा। चाहतसुखदुखसङ्गनछाड़ा॥२॥ अंबुकहे बिंदु ताकीराशि शरीर है समुद्र जो है संसारसागर ताकीखाई है अर्थात् संसारहीमें सबशरपरे हैं जैसे जलजीव समुद्रमें रहे तैसे ताना जीवन
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बीजक कबीरदास ।