(११२) बीजक कबीरदास । अथ अड़तीसवींरमैनी । चौपाई। यहिविधिकहाँ कहानहिंमानामारगमाहिंपसारिनि ताना रातिदिवसमिलिजोरिनितागा।ओरतकाततभर्म न भागा २ भमैं सवघट रह्यो समाई । भर्मछोड़ि कतहुँ नहिं जाई॥३॥ परैनपूरि दिनोंदिन छीना।जहां जाहु ताँ अंगविहीना ॥४॥ जोमतआदिअंतचलिआया।सोमतिउनसवप्रगटसुनाया। साखी ॥ वहसँदेश फुरमानिकै, लीन्हो शीशचढ़ाय॥ | संतोहै संतोषसुख, रहहु तौ हृदय जुड़ाय ॥ ६॥ यहिविधिकहाँकहानहिंमानामारगमाहिंपसारिनिताना॥ कबीरजी कहैं कि सतयुगमें सत्यसुकृत नामते, नेतामें मुनीन्द्र नामते, द्वापरमं करुणामय नामते, कलियुगमें कबीर नामते, मैं चारो युगमें जीवनको रामनामको अर्थ साहवमुख समुझायो पै कोई जीव कहा न मान्यो वेदमार्गमें ताना पसारतभये कहे अपने कहे अपने अपने मतमें अर्थ करिलेतेभये ।। १ ।। रातिदवसामलिजोरिनिताना।ओटतकाततभर्मनभागा२॥ | औ रातिउ दिन तागा जोरतभये कहे वेदार्थको अपने अपने मतमें लगावत भये अर्थात् जहां जहां अर्थ नहीं लगैहै तहांतहां अपने मतमें योनित करतभये औ ओटत कातत कहै शंकासमाधान करत करत भर्म न भाग्यो इहां ताना प्रथम कह्यो ओटब कातब पीछे कह्यो सो प्रथम शंका समाधान कारकै काति ओट कै ताना तनतभये अर्थ बनावत भये जब बन्यो तब फेरफेर शंका समाधान करि ओटिकाति अर्थको ताना पसारत भये भर्म न भाग्यो एक सिद्धांत न भयो ॥ २ ॥
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बीजक कबीरदास ।