रमैनी । ( १११) एकसयान सयान न होई।दुसर सयान नजानै कोई ॥ १ ॥ तिसरसयान सयानैखाई । चौथ सयान तहां ले जाइ॥२॥ एक जो ब्रह्म ताहीमें जे सयानहैं अर्थात् वाही को सांचमानै हैं और सब मिथ्याँहे ते सुयान नहीं हैं औ दूसरमायामें जेसयान हैं वे कहें कि, मायाको हम जानै हैं सो माया त सतअसत ते विलक्षणैहै ताकी कोई जानतही नहींहै कि, कौन वस्तुहै॥१॥ अरु तीसर जो जीव तामें जे सयानहैं कि,जीवामै सवका मालिक या विचौरैहैं ऐसे जे गुरुवालोग ते सयान जोजीवहै ताकाखा- इहैं कहे पाखण्डमतमें लगाय नरकमें डारिदेइहैं चौथ जो ईश्वर और सब देवता तामें जे सयान हैं अर्थात् उनकी उपासना जो करै हैं ईश्वर देवता तिनको अपने लोकको लैजाय हैं ॥ २ ॥ पँचयेंसयान न जानैकोई । छठयें महँ सवगयेबिगोई ॥३॥ सतयेसयान जो जानौभाई । लोक वेद महँदेहुदेखाई॥४॥ हो पाँचौंइन्द्रिनकी विषय तिनमें जे सयानहैं ते ते वे कछू जानतही नहीं हैं बद्धही हैं अरु छौं है मन ताहीते सबैगैल बिगोइगई है॥३॥सातवें सयान नों साहब ताके जो जानौ तौ हे भाई ! लोक वेदमें मैं देखाय देउँ कि जेते बर्णन करिआये तिनते साहब परे है ॥ ४ ॥ साखी ॥ विजकवतावै बित्तको, जोवितगुप्ताहोई॥ शब्द बतावै जीवको,बूझै बिरला कोइ॥६॥ श्री कबीरजी कहैं कि जैसे जौन बित्त गुप्तहोय है कहे गाड़ा होइ तने धनको बीजक बतावैहै तैसे सारशब्द जोरामनामबीजक सो साहब मुख अर्थमें नौवक बतावै है कि तू साहब को है तेरोधन साहिबै है से या बात कोई बिरलासाधु बुझै ॥ ५ ॥ इति सैंतीसवीं रमैनी समाप्ती ।
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रमैनी ।