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( ११० ) बीजक कबीरदास । शाहीको दुहाईकै गावतभये अर्थात् संयम नेमकरि स्वर्ग में जाइ अप्सरन ते भोगकरै यही गावतभये ॥ ४ ॥ साखी ॥ ते नर मरिकै काँगये, जिन्हदीन्होंगुरुछोट ॥ राम नामनिज जानिके, छोड़ वस्तू खोट ॥५॥ जिनको गुम्छोट दियोहै अर्थात् थोरे अक्षरको मंत्रदियो औ जो घोट पाव्हेइ तो यह अर्थ है कि, गुरू उनको मूड़घोटि दियो अर्थात् मूड़ मूडिदियो अथवा कुंठप्यालाको धोटाँदैदियो पियाय दियो ते नर नेहैं हिंदू मुसलमान तेमरिकै कहांगये अर्थात् कहूं नहीं गये संसारहीमें परे हैं से अपनो जो रामनाम ताको जानिकै खोट बस्तुनो नाना देवतनकी उपासना धोखोब्रह्म स्वर्गकी चाह ताको चाहो अंतमें उबार रामनामही करैगो तामें प्रमाण ॥ ( मनरे नवरे राम कह्यारे । फिरिकहिवे को कछुनरह्योरे ॥ काभोयोग यज्ञजपदाना । जातं रामनामनहिंजाना ॥१॥ कामक्रोधदोउभारे । गुरुप्रसादसवतारे ॥ कहै कबीरभ्रमनाशी । राजाराम मिले अविनाशी ) ॥ ५ ॥ इतिछत्तीसवीं रमैनी समाप्ती । अथसैंतीसवीरमैनी। चौपाई। एक सयान सयान न होई।दुसर सयान न जानै कोई॥१॥ तिसर सयान सयानेखाई । चौथ सयान तहाँ लैजाई॥२॥ पँचये सयान न जानैकोई । छठवें महँ सव गैल विगोई॥३॥ सतयेंसयानजोजानौभाई। लोक वेद मो देहु देखाई॥ ४ ॥ साखी ॥ विजक वतावै वित्तको, जोवित गुप्ताहोई॥ शब्द बतावै जीवको, बूझै विरला कोइ ॥६॥