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( १०४ | बीजक कबीरदास । आपुहि बरी आपुगरवंधा। झूठामोह कालकोधंधा ॥ २॥ । सो आपही स्मृतिको कर्म प्रतिपादनकारि कर्मरूप रसरीबरिकै आपही गरबांधत भयो अर्थात् कर्म करनलग्यो झूठानोमोहहै तामें परिकै कालको धन्धाबनावतभयो अर्थात् नानादेहधरतभयो कालमारतभयो साहबको जो तात्पर्य ते स्मृति बतावै है ताकेा ना संबुझावत भयो ।। २ । । बँधवतवंधछोड़िनाजाई । विषयस्वरूपथूलिदुनिआई ॥३॥ हमरेदेखत सवजगलूटा । दासकवीर रामकहि छूटा ॥४॥ । सो बांध तो बांध्या पै वह बंधते छोड्यो नहीं छूटैहै विषयमें सब दुनियां भूलिगई मांस खाइबे को चाह्यो तौ छागरमारि बलिदानदै खाइलियो औसुरापानहू करिबेको चाह्यो औ वेश्या राखिो चाह्यो त वाममार्गलियो इत्यादक अर्थ कारकै ॥ ३ ॥ सो कबीरजी कहै हैं कि हमारे देखत देखत यह माया संपूर्ण जगको लूटिलियो सो मैंतौ रामै कहिकै छूटिगयो सो मैं सबको बताऊ हौं सो दुर्घजीव नहीं मानै ॥ ४ ॥ । साखी ॥ रामहिंराम पुकारते, जीभपारगोरोस । सूधाजलपीवैनहीं, खोदिपियनकीहोस ॥५॥ | मोको रामैराम पुकारत पुकारत कि राममें लगौ जीभमें रोस परिगयो केह ठहर परिगयो पै जीव न मानत भये सो सुधा नळ तो पावै नहीं है कि सीधे रामकहै तरिजाय वही धोखा ब्रह्ममें लगाइकै नानामत दक्षिण बामादिक कारकै खोदिकै नलपियन की हवस करैहै कहें आशा कैरैहै सो ये तो सब धोखाई है मुक्तिकैसे होयगा सीधे रामजपि स्वामी सेवक भावकरि संसार सागरते उतरि काहे नहीं जायहे ॥ ५ ॥ इति तेतीसवीं रमैनी समाप्तः ।