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(९१) बीजक कबीरदास । ऐसे ही ब्रह्मादिक जे अनेकमत करिकै आपनेको कर्त्तमानि लिये हैं तिनके संग तुम न लागौ अर्थात् अनेक मतनमें तुम नं परौ तुम साहब को जाने ॥ ५ ॥ साँचीवातकहौंमैंअपनी । भयादेवानाऔरकिसपनी ॥ ६॥ । सो कबीरजी कहै हैं कि, साँचीबात मैं अपनी कहाँहौं अपनी कौनकी मैं नाना मतनको छोड़ि साहबको जान्यो है सोतुम नहीं बुझौहै। और की सपनी कहे स्वप्नवत् झूठी नानामतनकी वाणीमें देवाना कहे बिकल द्वै रहेही हैं। जीवो ! सो नातामत त्यागि साहबको जानो कहे और की पुनि जो या पाठहोय ताको अर्थ या है साँचाबात अपनी मैं कहताहूं जोमेरे मतमें साहबको जानता है सोई साँचहै पासुनि पुनि और का जा भया सोई दिवाना ॥ ६ ॥ गुप्त प्रगट है एकै मुद्रा । काकाकाहये ब्राह्मणशुद्रा ॥ ७॥ झूठगर्व भूलै मतिकोई। हिंदू तुरुक झूठ कुल दोई ॥८॥ सो हेनीवौ! गुप्तकहे जब समष्टिमें रहे है तबहू औ जबप्रगः कहे व्यष्टिमें रहे तबहूं एकही मुद्रारहेहौ अथाव साहिबै के रहे हो तुम ने नाना मतनमें परि नाना साहब मानि ब्राह्मण शूदकहतेहौ सो झूठेही जीवत्व तो एकही है ॥ ७ ॥ मैं हिंदूह मैं तुरुकहौं यह झूठो गर्वकारकै मति कोई भूल विचारिकै देखौ तौ हिंदू तुरुक कुल ये दोऊ झूठे हैं तुमतौ साहबके हौ ॥ ८ ॥ साखी ॥ जिन यह चित्र बनाइयो, साचा सो सूत्रधार ॥ कहहिकविरतेइजनभले,चित्रवंतहिहिविचार ॥६॥ जिन यह नाना चित्र बनाइया कहे जिन यह जीवको मन नाना शरीर जगत्में बनायो है तौने को सूत्रधारी साहब साँचो है जीन सबको सुरतिदियो है सो कबीरजी कहहै चित्रवत जो या मन नानादेह देनेवालो याको जो कोई बिचारिलियो कि या मिथ्याहै औ साँच साहब को जानिलियो ते जन भले हैं ॥६॥ इति छब्बीसवीं रमैनी समाप्ती ।