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(२८) बीजक कबीरदास । चारि अवस्था सपनो कहई । झूठेफूरे जानत रहई ॥२॥ मिथ्यावातनजानेकोई । यहिविधिसिगरेगयेविगोई ॥३॥ चारिअवस्थाजेहैं जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तुरिया ते सपनकहाती हैं तो झूठी फुरि जानत रहै हैं॥२॥वह कैवल्य जो है पॅचंई अवस्था तद्रूप है जाइब कि, मैंहीं ब्रह्महौं सामिथ्या है यहबात कोई नहीं जानै है यहीविधि सिगरे जीव विगरिंगये कहे बिंगोइगये ॥ ३ ॥ आगे दैदै सवन गैवावा । मानुषवाद्ध न सपनेहुपावा॥४॥ चौंतिसअक्षरसोनिकलैजोई। पापपुण्य जानैगासोई॥॥ वहींधोखा ब्रह्मके आग और कुछ नहीं रह्यो आदिकी उत्पत्ति वहीतेहै यही बात आगे ६६ कहे विचारि कै सिगरे जे ऋषिमुनि हैं ते आजअपने स्वस्वरूपको गैवावतभये मनुष्यरूपनो मैं तिन के जाननेवाली बुद्धि सपन्यो न पावतभये ॥ ४ ॥ चौंतिसअक्षरके जो निकरैगा सोई पापपुण्यजानैगा मैं साहबको हौं और मैं लागैह से पापई करौहौं या बातमेरो अनिर्वचनीय निर्वाण नो नाम है ताका जपिकै जानैगो औ अपने स्वस्वरूप जानैगो ॥ ५ ॥ साखी ॥ सोइकहते सोइ होउगे, निकलि न बाहेरआउ ॥ हो हुजूरठाढ़ो कहाँ, धोखे न जन्म अँवाउ ॥६॥ जोपदार्थ देखोगे जो सुनौगे जो कहोगे जो स्मरण करौगे संसारमें सोई होउगे वहीं धोखामें लागिकै पुनिसंसारी होउगे वा में ते निकारकै बाहर न होउगै काहेते कि, वहतो अकर्ताहै तुम्हारी रक्षाकौन करैगो सो साहब कही हैं। कि, सर्वत्र पूर्णहीं तेरे हुजूर ठाढ़ कहतई हौं कि, तें मेरो है तू काहे धोखा ब्रह्म में ईश्वरनमें जगत्के नाना पदार्थमें लगिकै जन्मगंवाये देतहै ॥ ६ ॥ इति चौबीसवीं रमैनी समाप्ती ।