(८०) बीजक कबीरदास । अथ बीसवीं रमनी। चौपाई । अबकरामनामअविनासी।हरितजिजियराकतहुँनजासी १ जहाँजाहु ताँ होहुपतगा। अवजनिज हुसभुझिविषसंगा २ रामनामलौलायसोलीन्हा। भृङ्गीकोट समुझि मनदीन्हा ३ भोअतिगरुवा दुखकै भारी। करुजिययतनसोदेखुबिचारी मनकीवातहैलहरिविकारा। त्वहिनहिं सूझै वार न पारा ५ साखी ॥ इच्छाको भवसागरै, वोहित राम अधार ॥ कहेंकविरहरिशरणगहु, गोवछखुरविस्तार ॥६॥ अवकहुरामनामअविनासीहरितजिजियराकतहुँनजासी । अबिनाशी जो रामनाम ताको अबहूं कहु । हरिकहे भक्तन के आरति हार- णहारे जे साहब हैं तिनको छोड़ि हे जीव औरेमतनमें कतहुँन ना अर्थातचित- चित्तते विग्रह करि सर्वत्रसाहिबैकोदेख ॥ १ ॥ जहाँजाहुतहँहोहुपतंगा । अवजनिजरहुसमुझिविषसंगा २ जौनेन मतमें जाहुहौ तहां पतंगहीसे जरिजाउहौ सो ते गुरुवन को संगजो बिषाग्निताको समुझि अबजनि जरहु अर्थात् जो इनको संगकरहुगे तो मन इन्द्रिया- दिकन को बिषय जो सिद्धांत कीन्हेहै ताही में तुमहूंको लगाइ देयँगे तो ससारही में परेरहोगे ताते इनको संगत्यागि गमनाम जपै जो कहै। कौनीरीति- ते जैसै रामनामती मन वचनके परेहै सो आगे कहैहैं ॥ २ ॥ रामनामलीलायसोलीन्हा । भुंगी कीटसमुझि मनदीन्हा ३ रामनाममें सो लै लगाय लीन है कौनजौन भृङ्गी औ कीट की ऐसीगति समुझिकै अपने मनदीन्हहै अर्थात् जैसे कीटभृङ्गी को देखते देखत वाको शब्द
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बीजक कबीरदास ।