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( ७९ )
रमैनी ।

रमैन । (७९) यहैतमाशादेवहुभाई । जहँदैशून्यतहांचलिजाई ॥ २ ॥ शून्यहिवांछाशून्यहि गयऊ। हाथाछोड़िवेहाथाभयऊ ॥३॥ सेा हे भाइयो! हे जीव ! यह तमाशा तुमहूं अनेकन जन्मते देखतैआयेही परन्तु जहां शून्यं तहां जाइकै मुक्ति द्वैवो चाहीही तुम या नहीं बिचारौहौ कि शून्य जो धोखा ब्रह्म तामें जो हम जायँगे तो हमारी मुक्तिकी बांछडु शून्य वैनायगी अर्थात् मुक्ति न होयगी सो या बड़े आश्चर्यहै आपनेते झूठेमें वांधिकै साहब को हाथ छोड़िकै बेहाथ भयऊ कहे धोखा ब्रह्मके हाथ में हैजाड ही अथवा कबीरजी छूटे जीवनते कहै हैं हे भाइयो ! देखे तो तमाशा ये जीव जहां शून्यै धोखाहै तहां सत्र चले जायजौने ज्ञानमें साहब भरेपूरे हैं तहां नेहीं जाय २ ॥ ३ ॥ संशयसाउजसजसंसारा । कालअहेरीसांझसकारा ॥ ४॥ ई संशय के मनरूप जो साउन ताहीको सकल कहे सुरति यासंसार है रह्यो। है अर्थात् मनरूप जीव द्वै रह्यो है संकल्प विकल्प सबकैरहेहैं संशय सब जीव को लग रही है । सो अहेरी जोकाल शिकारी सो सांझ सकारकहे काहू को जन्मतमें मौरैहै काहू का मध्य अवस्थामें और काहूको आयुर्दायके अंतमें मारैहै ॥ ४ ॥ साखी ॥ सुमिरनकरसोरामको, कालगहेहै केश ॥ नाजानोंकवमारिहै, क्याघरक्यापरदेश ॥५॥ सो कबीरजी कहै कि परमपुरुष जे श्रीरामचन्द्र तिनको सुमिरण करहु शिकारी जो कालहै सो केश करमें गहे है या नहीं जानै हौ धौं कब मारै . या घरमें या परदेशमें अर्थात् साहबकेबिना स्मरण घर में रहोगे तौ न बचोगे जो बनमें जाउगे तोहू न बचौगे ॥ ५ ॥ इत उन्नीसवांरमैनी समाप्तम् ।