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(७४) बीजक कबीरदास । देख्यो तबतक तो उजियारी जब ज्योतिमें लीनद्वैगयो तब सुषुप्ति ऐसे में। परयो रह्या यही भयावनि निहै भयावनिको हेतु यह है कि प्राणके उतरिबेकी अवधि बनी है ॥ ४ ॥ ५ ॥ ६ ॥ साखी ॥ सभैलोगजहँडाइया, औ अन्धासभैभुलान ।। कहाकोइनहिमानही, सबएकैमासमान ॥ ७॥ | और जे मायाते सभयरहे डेराते रहे ते लोग जहँडाइयो कहे बहेकिकै - रई और मतनमें लगिगये औ जेअज्ञान आंधेरर ते संसारहीमें परे संसार छूटिबेको उपवैना किये भूलिहीं गये सो कबीरजी कहैहैं कि मेरो कहा कोई नहीं मानैहै सब जे जीव हैं ते एक जो मायाब्रह्म ताहीमें सब समाते भये इत्यर्थ औ साहबको बिनाजाने ब्रह्महू में लीनलै संसारहीमें अवैहै बाको प्रमाण. पीछे लिखिआयेहैं ॥ ७ ॥ इति सोलहवीं रमैनी समाप्तम् । = अथ सत्रहवीं रमैनी । चौपाई। जसजिवापुमलैअकोई । बहुतधर्मसुरवहृदयाहोई ॥१॥ जासों वातरामकी कही। प्रीति न काहूसोंनिर्बही ॥२॥ एकैभाव सकलजगदेखी। बाहेरपरैसोहोयविवेकी ॥ ३॥ विषयमोहकेफंदछोड़ाई । जहाँजायतहँकाटुकसाई ॥ ४॥ आय कसाई छूरी हाथा । कैसहु आवै काटमाथा ॥५॥ मानुष वड़े बडे वैआये। एकै पण्डित सबै पढ़ाये ॥ ६॥ पढ़नापढ्छुधरहुजनगोई। नहिंतोनिश्चयजाहुबिगोई॥७॥ साखी ॥ सुमिरन करहु सुरामको,औ छोड़ दुखकी आस॥ ... तरऊपर धरि चापि जसकोल्हूकोटिपचास ॥८॥