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(६४) बीजक कबीरदास । नहींतो शेषहोतहोत सब लुकाय जायहै एक एक में लीनलैजाय कहीं लोप है जाय है कहीं अलोप है जायौ निषेध करत करत तुमही रहिजाउही कि मैं रहिजाउँहौं तब मैं तुमको हंसरूपदै आपने धामको लैआवो हौं सा या जगतमरेही शरीरहै या परतीतितुमका काहूको न आई द्रव्यही बुद्धि मानते भये ॥ २ ॥ चलेलोगसब मूलवाई। यमकीवाढ़िकाटिनहिंजाई ॥३॥ सबको मूल जो मेरो रामनाम ताको आँबाय कहेभूलिकै हे जीवो!तुम सब नानापन्थमें चलेहो परन्तु यमकहे दोऊविद्या अविद्यारूप जो घोरनदी तिनकोबादिजो है धारा सो न काटीजायगी अर्थात् न पैरी जायगी । वाही में बूड़िजाबोगे । अथवा यम जो है काल रूप ब्रह्म ताकी बादि जो बाणी जो एकते अनेक भई है सो हे जीवो तुम्हारी काटी न काटिजायगी जो काटि पाठहोय तौयह अर्थ है विद्या विद्याकी दुइ नदी बादी तुम्हारे हिय में सो तुम्हारी काटि न काटिनायगी अर्थात् वाहीमें परेरहोगे अथवा चौदहौ जे यमबर्णन करिआये है तिनकोबादिबढ़ी है सो तुम बिना मेरी कृपा न छूटौगे । सो तुम्हारी काटी न कटैग बिनामाकोजाने ॥ ३ ॥ आजुकाजजियाल्हअकाजा । चलेलादिदिग्गंतरराजा | हेजीवौ ! अनिर्वचनीय जो मेरो नाम ताको जोआजु समुझौ त कार्य होयगो तिहारो औ जोकाल्हि कहे शरीर छूटेमें समुझो चाहौतौ अकाउँदै नाजानै कौन योनिमें परौ फिरि समुझौ धौं ना समुझौ । सो हे जीवो तुमते राजा हौ मन मायादिक ये तुम्हारे ही बनाये हैं सोती तुम भूलिगये । चले लादि कहविद्या• अविद्याके जे नानाकर्म तिनको अंगीकार करि अर्थात् वैहै बोझाअपनेमाथे में धरि | दिगंतरमें नाय नानाशरीर धारण करत ही सो अबहूं मोको जानि. तुम सब यहदुःख त्यागो यह मायारूप धोखावालेनको उपदेश दियो अब सहजस• माधिवालेनको क है हैं ॥ ४ ॥ . १ देंखों मंगल में १८ व साखीकी टीका ।