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भाषाओं के सुघर शब्दों को अपनाने में लीन हैं। जिसे अपनी ही सुधि नहीं उसके चपलरब पर ध्यान ही क्यों दें? उसे भी अपनी बकवास मिटा लेने दें। पर हाँ, भाषा की परंपरा तथा मर्यादा को उसके हाथ में सौंपने की क्रूर चेष्टा न करें। व्यर्थ में किसी शिष्ट और उदार भाषा पर प्रहार न करें। आखिर विश्व के अन्य भूभागों में भी तो मुसलिम बसते हैं? उन्हीं का मजहब क्यों नहीं पकड़ते? क्या हिंद के 'इम्तयाजी' मुसलमान फारस के फारसी मुसलमानों से बढ़कर फारसीभक्त या खुदापरस्त हैं? हम तो नक्स परम्ती को खुदापरस्ती के रूप में नहीं देख सकते। जो देख सकते हैं वे शौक से इसे मजहब की चीज समझें। हमें तो बस जबान का मजहब समझना है, 'इम्तयाज' का मंत्र हरगिज नहीं।

शाहजहानावाद के 'उर्दू-ए-मुअल्ला' में जो 'ताज: ज़बान' ईजाद की गई उसकी प्रेरणा दक्खिन से हुई थी। कहा जाता है कि औरंगाबादी 'वली' के 'दीवान' ने दिल्लीचालों में यह हरकत पैदा कर दी कि शाह हातिम ने इस नई जवान में एक 'दीवान- जाद' की रचना कर डाली और देहली में एक नवीन ढंग की रचना का उदय हुआ जो आज उर्दू के रूप में प्रतिष्टित और ख्यात है। अस्तु, आवश्यक यह हो गया कि कुछ दक्खिन के दोस्नों की करतूतों को भी देख लिया जाय और भोलीभाली जनता के सामने प्रत्यक्ष रख दिया जाय कि उनका लक्ष्य क्या है। 'मुस्तनद' और 'प्रिय' होने के लिये उन्हें क्या क्या करना पड़