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कचहरी की भाषा सचमुच उर्दू हो जाय। उर्दू का प्रयोग जानबूझ कर केवल यह दिखाने के लिये किया गया है कि उर्दू के सच्चे सपूतों ने भी बराबर इस बात का ध्यान रखा है कि उनकी जबान सचमुच एक साफ सुथरी जवान हो, कुछ अरवी, फारसी की बमेल दोगली नहीं। यदि यकीन न हो तो कचहरी या किसी दस्तर की जवान को किसी सच्चे उर्दू के उस्ताद को दिखाइए और फिर देखिए कि उनकी राय क्या है! उर्दू के फसीह और नामी लेखकों की राय में भी जो जबान जबान ही नहीं ठहरनी वही आमफहम क्यों कही जाती है और उसी की रक्षा के लिये पूरे १७० वर्ष से इतना दलवा क्यों मचाया जा रहा है, कुछ इसकी खबर है? यदि हाँ तो फिर इस बात पर ध्यान ही क्यों नहीं दिया जाता कि कचहरियों और दक्तरों की भाषा को एकदम हिंदुस्तानी याने आमफहम बना दिया जाय? क्यों वरा- बर जनता की स्वरी और निष्पक्ष माँग को 'साम्प्रदायिक' कहा जाता है और ज्ञानशून्य दुराग्रह को ठीक माना जाता है? सांके- तिक शब्दों को छोड़िए। उनके आम होने में किसी को संदेह नहीं। पर क्या उनके लिखने की तरकीब भी आम है? क्या इस उसे बिगड़ी फारसी की भोंडी नकल नहीं कह सकते? यदि नहीं, तो हमारा निवेदन है कि विना निदान के दवा कैसी? रोग का पता नहीं पर दबा जरूर हो! कैसी बढ़िया नीति है?

बिहार की काँगरेसी सरकार जिस जवान का सत्कार कच- हरियों में कर रही है और जिसकी रक्षा के लिये डाक्टर मौलाना ३