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ने दूसरा एलान शाया किया जिसके रू से एलान साबिक मंसूख़ हो गया और यह हुक्म जारी हुआ कि उर्दू रस्मख़त कुल अदालतों और सरकारी दफ़्तरों में जहाँ जहाँ पहले कभी रायज था, एख़्तयारी रस्मख़त होगा। क़िस्मत छोटानागपुर और संथाल परगनः इस हुक्म से मुस्तसना हैं।

"इसके चंद रोज़ बाद ही हुकूमत की तरफ़ से एक एलान शाया हुआ कि अगर कोई अर्ज़ी या तहरीर बयान उर्दू में दाखिल हो तो फ़रीक़ मुख़ालिफ़ के मुतालिबे पर उसे उसकी हिंदी नक़ल मिलनी चाहिए। इसका मतलब आम तौर पर यह समझा गया कि यह रिआयत सिर्फ़ हिंदीवालों के लिये है। उर्दूदाँ इससे महरूम रहेंगे। इस ग़लतफ़हमी को रफ़ा करने के लिये १३ जुलाई सन् १९३७ ई॰ को एक और एलान शाया हुआ जिसका मंशा यह था कि यह रिआयत सिर्फ हिंदीदाँ फ़रीक ही के लिये नहीं बल्कि इसमें उर्दूदाँ भी शामिल हैं। लेकिन यह मामल: हुकूमत के तै करने का नहीं है। हाईकोर्ट इसका फै़सला करेगा जिसकी तवज्जह इस तरह मुनातिफ़ कराई गई है", ( उर्दू, जुलाई सन् १९३७ ई॰ पृ॰ ६५४-५)

हाईकोर्ट और काँगरेसी सरकार के फैसलों की ताक में लगा रहना उर्दूवालों का काम है। क्योंकि उर्दू ही एक ऐसी बनावटी ऊपरी जबान है जो किसी सरकार की सहायता के बिना एक पग भी आगे बढ़ नहीं सकती। फिर वह सहायता चाहे काँगरेसी सरकार की हो चाहे निजाम हैदराबाद की, मिलनी अवश्य चाहिए उर्दू को। उस उर्दू को जो कभी हिंद की होकर रहना चाहती ही नहीं। खैर, कहना तो हमें यह है कि सन् १८३७ ई॰ से लेकर आज तक कभी उर्दूवालों ने इस बात की तनिक भी चिंता न की कि