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को जो हमारे मदरसों में दी जाती है, रोकने की कोशिश करूंगा। मैं फ़ारसी ज़बान के मदाहों में हूँ। यह एक नफ़ीस और पुरतकल्लुफ़ ज़बान है। अगर फ़ारसी ज़बान की तालीम दी जाय तो मुझे कोई एतराज़ नहीं बशर्ते कि हालात ऐसा करने के मुवाफ़िक हों। लेकिन बिगड़ी हुई अरबी और बिगड़ी हुई फ़ारसी के मेल से जो ज़बान तैयार की गई है जिसमें हिंदुस्तानी के कुछ थोड़े में अफ़ाआल व हरुफ़ फ़जाइयः (Conjunction) शामिल कर लिए गए हैं जिसे उर्दू कहते है हरगिज़ इस काबिल नहीं कि उसकी तालीम दी जाय। मुझे बंगाली ज़बान नहीं आती लेकिन मुझे यक़ीन है इस ज़बान में भी बहुत मेल पैदा हो गया है और उसमें संस्कृत के लफ़्ज़ और मुहाविरे बेतहाशा शामिल कर लिए गए है। बिहार के मदारिस में जो मुरव्वजः ज़बान में तालीम दी जाती है वह तमामतर इसपर मुशतमल हैं कि एक मौलवी साहब उर्दू पढ़ा देते हैं और एक पंडित जी हिंदी में लिखे हुए चंद सूरमाओं के तारीख़ी हालात बता देते हैं। इस तारीख़ में हर दूसरे या तीसरे सफ़हे पर संस्कृत के श्लोक जरूर होते हैं। हिंदी के मुतल्लिक मेरी राय है कि उसमें ख़्वाहमख़्वाह संस्कृत के लफ़्ज़ों की ठूँसठाँस नहीं होनी चाहिए और न हम यह कर सकते हैं कि हिंदी का नाम लेकर हर गाँव की अलहदः बोली को तसलीम करें। ऐसा करना बिल्कुल इसके ममासिल होगा कि इंग्लिस्तान में बच्चों को इवरेस्ट(?) शायर या यार्कशायर की बोलियाँ सिखाई जायँ। हिंदुस्तान की एक ज़बान कुल मुल्क के लिये है जो हिंदुस्तानी कहलाती हैं, बिल्कुल इस तरह जैसे इंग्लिस्तान में अंगरेज़ी है। मेरी दानिस्त में अह्ल बंगाल की ज़बान इसी तरह बंगाली कहीं जा सकती है। लेकिन चूँकि बंगाली ज़बान अभी हाल ही में वजूद में आई है इसलिये बोलचाल की बंगाली और