पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/९९

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बिहारीविहार ।। .. पुनः। आय गये हरि आयु सौति सकत हुँ त्याग्यो। मेरी झझकन वानि विसरि ॐ हिय अनुराग्यो । सोई मिलयो जासु हेतु रोवत दिन काटे । कोटि सखि-

  • न क सुकवि वारि फेंकहु इहिँ काँटे ॥ ७४ ॥

| पुनः ।। आय गये हरि पु विसरि निज तन मन धन लखि । कहुँ मुरली कहूँ साल कहूँ पटपीत परयो सखि ॥ इतो न श्रम हरि कियो परे गज हू के ऑटे। घवरायो घनस्याम सुकवि काढ़त इहिँ काँटे ॥ ७५ ॥ | घास घरीक* लिवारिये झलितलालतअलिपंज। जमुनातीर तमालतमिलतमालतीकुंज ॥ १८ ॥ सिलत मालतीकुंज निकट बंसीवट केरे । जहँ धन पातन ओट किरन आवत नहिँ नेरे ॥ सोवत जहाँ मयूर सैंक तजि लहि सुख नीको । सुकवि स्यास चलि तहाँ निवारिय धाम धरीको ।। ७६ ॥ ... । हरषि न बोली लखि ललन निरखि अमिल सँग साथ ।। आँखन हीं मैं हँसि धरयो सीस हिये पर हाथ ।। ४९ ॥ सीस हिये पर हाथ धारि बँदे दृग दोन। पुनि उसास लै हरि हिँ निरखि

  • घरीक = घरी एक । ब्रजभाषा में एक शब्द उत्तर पद रख के समास होता है तब एक के एका

का लोप हो जाता है जैसे दो० ५४ * छनक छदौली क्वाह ” दो० ७१ ‘‘द्यौसक ते पिय चित चढ़ी

  • दो० ७० ६ काम न आवत एकह मेरे सौक सयौन ” इत्यादि। दो० ८e * तुह कहति हौं आपः
  • समुझति सौक सवान” दो० २४४ * छनक चलति” कोई कोई ऐसा भी समझे बैठे हैं कि एक
  • के माथे सुमास होने में पूर्व पद के अंत्य स्वर का लोप हो जाता है और 'एक' का ‘ए’ पूर्व व्यञ्जन ३
  • इवोच्चारक हो के मिल जाता है पर वे ‘इनक’ को ‘छनेक वनाले परन्तु ‘धरीक’ ‘सौक' में क्या

रेगे ।