पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/८४

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है । =: 54:58 विहारीविहार । सीस मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल ।। ' एहिँ बानकं मोमन बसहु सदा बिहारीलाल ॥ २ ॥ | सदा विहारीलाल निरखि मोही ब्रजवाला। अपनेहिँ काँ हरि समुझि प्रेम । स भई विहाला ॥ उलट पुलाट ही वेस रच्यो निज सुकवि छटा छटि । धारयो नूपुर करनि काछनी सीस सुकुट कटि ॥ ६ ॥ पुनः ।। - सदा विहारीलाल कृपा लहि सुकवि विहारी । करी विहारीसतसइया रस रीति निहारी ॥ रची जथामति कुण्डलिया तिन पै मैं सुलसी । सात सतक के सात समुद पै सोहहु पुल सी ॥ १० ॥ --- - - - --- ===4 मोरमुकट की चन्द्रिकन याँ राजत नँदैनन्द । मनु ससिसेखर की अकस किय सेखर सत्चन्द् ॥ ३ ॥ | चन्द्र धरयो अंग रंजित के ब्रजधुरि विभूती । व्यालबाल सी लट छटकाई कसि मजबूती ॥ सींग वजावत देखि सुकवि मेरी दृग अटकी । लटकी सुर- सरिधार कलँगिया मोरमुकट की ॥ ११ ॥ = = = = == = = = = = मकराकृत गोपाल के कुंडल सोहत कान ।। धस्य मनो हियगढ़ समर ड्योढ़ी लसत निसान ॥ ४ ॥ ड्योढी लसत निसान चॅवर कलंगी जुग राजत । मुकुट मनोहर छत्र नयन हय जुगल विराजते । आसा साटा कनक केसरिया खोर हृदयहृत ।। सुकवि मोह गयो आजु देखि कुंडल मकराकृत ॥ १२ ॥

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। नेई के नए रे में मिड है, जैसे टोंक्षा ३६ भी दोहा २६९ इत्यादि में ।