पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/७९

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5 ६:३EE . EEEEE बिहारी विहार की रचना । तो वे लोग समझ सकते हैं जिन को भगवान् ने लेख शक्ति के साथ ही निश्चिन्तता तथा अवसर दिया ।

  • है, न वे लोग समझ सकते हैं जो द्रव्यबल से दूसरे दरिद्र लेखकों से ग्रन्य वनवा ग्रन्थंकार बने बैठते हैं,

और न वे लोग समझ सकते हैं, जो धूता के बल से थोड़े नायिका नायक के नाम याद कर पराई कविता चुरा २ अपने नाम ठोकं अपने को कवि की पोंछ प्रगट करते हैं। मुझे तो ऐसे कामों में वि- चारौ रेल बहुत ही काम आई है । मैं प्रायः, नवीन पथिकों से व्यर्थं बात करते और झाड़ झाड़ लोसड़ी स्याल देखने के ठिकाने पेन्सिल और कागद का ही शरण लेता आया है। उसी प्रकार इस यात्रा में भी बरावर कुण्डलिया बनने लगो । जयपुर में रोमँवाले कामदार स्यामलालजी और पुरन्दर जी प्रभृति सुज्ञगण ने इस ग्रन्थ पर और तोष प्रगट किया । मैं यात्रा से लौट के आ फिर सरकारी कसि के चरखे में फंसा परन्तु यथावसर इस काम में भी हाथ लगाये रहा ॥ फिर मेरी मुज़फरपुर से

  • भागलपुर बदलो हो गई और वहां उस समय के स्कूलों के इन्स्पेक्रे जानवेन सीमरन पोर् एम् ०ए०की

आज्ञानुसार कई एक स्कूल में पढ़ाने योग्य पोथियां + लिखनौ पड़ौं । तथा महाराज मिथिलेश की अाज्ञा से रचित सासवत नाटक ( संस्कृत ) छपवाना पड़ा तथा और भी कितनेही काय ऐसे ग्रा पड़े कि बरसों तक यह काथ्य एकाएकी रुक गया ॥ ( इन काय्य में प्रधान काय बिहार संस्कृत सङ्गौवन का था जिसने अनवरत ७ वर्ष तक सा अहोरात्र के रक्खा था ) अनन्तर इस समय के प्रसिद्ध हिन्दौबङ्गबासी पृत्र के अध्यक्ष ने साग्रह मुझ से कुण्डलिया मॅगी तो कुछ दिन तक सेंने उस पत्र में भी बराबर लगढग ४० कुण्डलिया भेज” और वे उस में छपी ॥ भागलपुर के भाग्य की मैं क्या प्रशंसा करू कि जिने यह ग्रन्थ समर्पित है उन महाराज कोशलेश का यहां विवाह हुआ। इस समय थीमहाराज के साक्षात्कार और आलाप का मुझे भी आनन्द मिला घा ॥ कविता पर महाराज को पूर्ण रुचि और गुणन्नता देख मैंने दो वर्ष यथावसर और परिश्रम कर यह ग्रन्थ'पूर्ण किया तथा सर्बत् १८४८ में विजयदशमी की छुट्टी पर मैं इस ग्रन्थ को साथ लिये श्री अयोध्याजी गया। साथ ले जाने का एक तो यह अभिप्राय धा कि लगढग ५० कुण्डलिया शेष थीं उने रेल पर अथवा जव अवसर सिले बनाऊँ और दूसरा यह अभिप्राय था कि श्रीमन्महाराज कोशलेश को सुनाऊँ तथा उने ग्टहीत हो तो उन के नाम सहित कुपवाऊँ ॥ हनुमानगढ़ी के संदीप पण्डित लक्ष्मीनारायणजौ के डेरे में मैं ठहरा । वह पण्डित गङ्गासहाय प्रकृति मेरे मित्रगण उपस्थित हुए और सब के सामने उनलोगों के आग्रह से मैंने उस ग्रन्थ को निकाल । कुछ कुछ कुण्डलिया सुनाना प्रारम्भ किया । घण्टों तक कविता का आनन्द रहा उसी दिन रात को चौमहाराज के यहां इस ग्रन्थ की बातचीत हुई और महाराज ने दूसरे दिन सुनने का अभिलाष ।

    • (१) कथा हुनुस । (२) रत्नाटक। (3)-Children's Sanskrit Grammar:(4) Practical Sanskrit

( Part 1.} (5) Practical Sanskrit ( Part II. ) उपनाम कमलापति कवि ( मेरे भाई के साले.. : ..