पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/७८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बिहारी बिहार की रचना ।। भगवान् की इच्छा से सम्बत् १८४३ में मैं विहार में मुज़फ़रपुर में गवर्नमेण्ट स्कूल में प्रधान संस्कृता- ध्यापक था। वहां मुझे एक वर्ष बिताना पड़ा था। वहां के प्रसिद्ध रईस रायनन्दीपति महथा के पोते राय परमेश्वरनारायण महथा से मुझ में अत्यन्त ही प्रेम घा और उनी की कोठी में में रहता था । उनी के नारायण प्रेस से मेरा मासिकपत्र पीयूप-प्रवाह निकलता घी । इन दिनों बाबू परमेश्वरनारायण के

  • चचा वाबू रामेखरनारायण महथा मुझ से विहारीसतसई पढ़ते थे ! एक दिन सायङ्काल में सब बाबू

। लोग तथा पण्डित अयोध्याप्रसाद सुकुल और विहार के प्रसिद्ध पण्डित निधिनाथ झा. वैठे थे कि पठान सुल्तान की कुण्डलिया की चर्चा निकतो । मैंने दो एक पठान की कुण्डलिया पढ़ी तब बाबू परमेश्वर नारायण ने सुझ से कहा कि ‘देखें आप भी तो किसो २ दोहे पर कुण्डलिया बना के सुनाइये ।' मैंने मेरी भववाधा” और “सोहत ओढ़े इन दो दोहीं पर कुण्डलिया बना दूसरे दिन सुनाई । तव वाबू में लोगों ने तथा विशेष कर मेरे मित्र के वावू देवीप्रसाद खड़ाञ्ची ने अधिक प्रशंसा कर कहा कि पीयूष । प्रवाई में प्रति बार आप की कुण्डलिया रद्द करें । मैंने ऐसा ही करना प्रारभ किया और मुझे अपनी कविता से स्वयं अपने ही को अधिकाधिक आनन्द मिलने लगा । ( निज कवित्त केहि लागे न नीका ) इसी वर्ष ऐसी उमङ्ग अ गई कि मैं श्री वावू देवीप्रसाद दोनों साथ ही पुष्कर यात्रा को राजपुताने

  • की ओर चल पड़े ॥ प्रयाग, मयुरा होते श्रीकृन्दावन पहुंचे । वहां प्रसिद्ध महाशय श्रीराधाचरण गोस्वामी
  • से मिले । उन ने कहा कि “श्राप की कुण्डलिया इसने देखी हैं वहुत ही उत्तम बनती हैं परन्तु ऐसा ।
  • न कीजियेगा कि धौड़ी सी बना के छोड़ दें कि ऐसा ही वाबू हरिश्चन्द्र ने किया और पठान कर

में भी ग्रन्थ पूरा मिलता ही नहीं है सो खण्डित ग्रन्थ के बम से फल नहीं है करना है तो पृरा ग्रन्य बना।

  • हुये ॥ मुझे इस प्रण के पहले पूरा अन्य बनाने का स्वप्न भी नहीं हुआ था परन्तु गोस्वामी जी का

। कथा मुझे बहुत प्रिय लगी और मैंने प्रणाम कर के कहा कि आप आशीर्वाद दीजिये कि ऐसा ही

| जो स्वयं लिखने पड़नेवाले हैं वे ही जानते हैं कि किसी ग्रन्थ बनाने और कविता वारने में कैसा ६ एकान्त का समय मावश्लक होता है। मेरे ऐसा पुरुप, जो घर में भी एक ही पुरुष व्यक्ति और से जिसे राजकार्य में भी अवसर नहीं । कुछ अवसर हो तो भी घर में भी छात्रों को पढ़ाना यः कुलधग्मे । ४६ इकता है। उस से इसे समय में कुछ धम्मप्रचार कुछ नित्य नियमाचार, कुछ शास्त्र विचार, कुछ मि'; १ का उद्धार इत्यादि उन्ध की एमी ठसठशी रहती 'नाई है ; कितने ही मित्रों के पत्रों के प्रत्युत्तर भी पड़े हो रहने आये हैं । इतने पर घोड़ा मेमय निन्ता भी जाय । गोमय घोड़ा Bारे रिम दार में पूरी दौड़ दौड़ चुका है वह अब क्या दौड़ सकता है ! ! धुरः कठिनता को न --- - - - -- - -- --- - -- - --- । एनके मर्म भाई हाई परनिरनारायः ।। है।