पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/४३

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. .. भूमिकाः। '.. ' भोजी सीखें भाग जासों जोगी जोग सीखत हैं रागी सीखें राग वागी | वागनि के भेव जू। पण्डिताईः पण्डित सुकवि कविताई सीखें रसिकाई सीखत रसिक करि सेव जू ॥ सीखत सिपाही त्यों सिपाहगरी कौलनि कामतरु दान सीखे तजि अहमेव जू । करै को जवाब अनवरखाँ नवाब जू सों और सव सिष्य एक अप गुरदेव जू ।। ५ ॥ आनँद की उमड़ घुमड़ चहुँ ओर जग लोचन सिरात नैंकु डीठि जो परत | हौ । सोहें सुरचाप के समान नग भाँत भाँत मुकता विमलवारि बूंदनि धं- रत हौ । सुरपात के समान वीर अनवरखाँन हरष हरषि दान वरषा करत | हौ। मीतानि के पूरत मनोरथ सरोवर से गुनिन के दारिद पँवारि ज्यौं हरत हौ।। धौंसा की धमक धुन गरज स्रवन सुने सटासम धरत फराहा फहरात हैं। देखि चउदंत लँडिसाहससमेटि सकि गरवी गरब तजि हिये हहरात हैं।

  • सुभ साहि सैद अनवरखाँ समथ्थ जव सिंह ज्यों समर में सह्मरि समुहात हैं।

उतकटे कदानि विहद वलवारे सद समद दुरद ल दुवन दुरि जात हैं॥ ७॥ दोहा—फूल फूल दे दान फल हरत रोर संतापु ।। अनवरखाँ कलिकपलतरु पोषत द्विजगन आपु ॥ ८ ॥... । थापे हैं जू दिलीपति पुहमि पुरन्दर के कामना के दानि परितापु सबको हरें । द्विजानि को देत सुख सीलमय साखा करि दयादल अमल अवनि पै विसतरें ॥ ॐ सदा प्रफुलित ही सुसन जाकौ देखियतु सुमनस सुखद सुभकरनही धरै ।। सुरतरु सैद अनवरखाँ कों चाह चाह सुरत रहै न सुरतरु को कहा करें ॥ ६ ॥ दोहा-अनवरखाँ जुकवन स आयुस कियों सनेह ।। कवितरीत सव सतसया मध्य प्रगट करि देह ॥ १०॥ ससिरिषिरिषि ससि लिखि लखों संवत् सबसे विलास । सं० १७७१ जाने अनवरचन्द्रिका कीनो विमल विकास ॥ ११ ॥ जुहे विहारी सत्सया मैं कावेरीति विलासः। सो अव अनवरचन्द्रिका सवको करे प्रकास ॥ १२ ॥