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संक्षिप्त निजवृतान्त ।

संक्षिप्त निजतान्त ।। ..............: से साधुवादध्वनि के अनन्तर शतावधान ने उसी विषय पर एक और लोक बनाने को कहा तो जैसे में ही यह बना ॥ “घटी हटवटाशब्दव्याजनैन कथयत्यत । राम रट रट प्राज्ञ कि सन्यैर्विकलै: अमैः ॥,,* फिर बाबू हरिश्चन्द्र जी ने साधुबाद पूर्वक अनेक हिन्दी कविता भी, सुझसे खरचित पढ़वाई और कई एक का तात्पर्य उन शतावधान से कह्य । उनने कहा “सुकविरेषः ।। वाव हरिश्चन्द्र जी ने कहा लीजिये अब आपको सुकवि का खिताब मिल गया। पण्डित सौतलाप्र हैं।

  • साद तिवारी और वेचन पण्डित जी प्रभृति उस समय के कालिज के चैपस्थित पण्डितगण ने भी कहा

से ठीक है ये सुकबिपद के योग्य हैं और किसी समय अवश्य ही भगवत् कृपा से जगप्रसिद्ध सुकवि हो

  • जायेंगे । भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी ने “इससे बढ़ के आपको क्या हैं” ” कह एक प्रशंसापत्र लिख दिया

और उसमें “काशौ कवितावदिनो सभा से सुकबि पंद मिला” इसकी सूचना दी ॥ ( मैं किसी पद्य में हैं। सुवि औ किसी, में पूरा नाम देने लगा ) ॥

  • तेरह हो वर्ष के बय में मैं पिळचरण सहित डुमराँव राजधानी में आया । यहँा के राजा, महाराज

राधिकाप्रसादसिंह मेरी कविता सुन अति प्रसन्न हुए, और भरे दरबार में कई एक समस्यायें दीं जि नकी पूर्ति मैंने तत्क्षण की । महाराज बहादुर को विदित हुआ कि मैं भागवत पढ़ता हूं। कहा किसी । लोक का अर्थ कहिये मैंने 'नौमीयते” श्लोक का अर्थ कहां सारी सभा अति प्रसन्न हो गई । रस मि । लने से महाराज बहादुर ने कई दिन तक श्रीमदभागवत का अर्घ सुना । यह रामनवमी के उत्सव का समय था, अनेक बबुआन औ गुणीजन उपस्थित थे । क्रमशः मुझ को इधर तो साङ्ख्ययोग वेदान्त पढ़ने का व्यसन हुआ और उधर सङ्गीत में सितार में जलतरङ्ग, नसतरङ्ग आदि का । पर सभी ऐसा चला जाता था कि एक कार्य से दूसरे में विघ्न नहीं में पहुंचता था । तिस पर भी पिताजी के वृद्ध तथा समय बिलक्षण होने के कारण कुछ कुछ कुटुम्बपोषण

  • की भी चिन्ता रखनी पड़ती थी। मैं रानौ बड़हर के यहीं अनुष्ठान करता तथा कथा भी कहता था ।

मुझे शास्त्रार्थ का भी व्यसन हुआ। . सं० १९३१ में काशी के गवर्नमेण्ट कालिज में अँग्लो संस्कृत विभाग में मैंने नाम लिखवाया ॥ ,अं । गरेजी भो कुछ समझ चला । मैं अपने बहनोई, पण्डित बासुदेव जी से वैद्यजीवनादि छोटे ३ : वैद्यक ग्रन्थ भी पढ़ने लगा और इस समय के काशी के सुप्रसिद्ध वैद्य विश्वनाथ कविराज विद्या कल्पद्रुम से अधिक स्नेह होने के कारण कितने हौ वैद्यक के सुगढ़ तत्व उनसे भी पाये। मैंने बंगभाषा में भी परिश्रम । आरम्भ किया और धीरे २ हिन्दी के लेख लिखने लगा। इन दिनों अर्यमित्र नामक एक पत्र काशौ ।

  • निकलता था मैं उसमें नाना प्रकार के लख लिखने लगा और प्रस्तारदीपक, ललितानाटिकादि
  • ग्रन्यों की रचना में हाथ डाला ( मेरे रचित ग्रन्थों की सूचनिका अन्त में है उसमें सव स्पष्ट होगा ) *