। तर विहारविहार ।। २१३ ।
- चखाचत चतुर निहारि और हू प्यास चढ़ावत । थिर हे जड़ से होत भाव
। तन्मय को लावत ॥ सुनै सुकवि की कौन प्रीत तिय की अति चाढ़ी । चलै । हिले नहिं नेकु नारि पुतरी सी ठाढी ॥ ८३८ ।।
- ससिवनी मो से कहत सो यह साँची बात । ।
नैननलिन ये रावरे न्याय निराखि नै जात ।। ७१५ ।।
- न्याय निरखि नै जात नैन अरु वदन कमल हू । कज्जल मलिन अधर हू
- सिकुरत ज्या तमदल हैं ॥ चचन पखेरू रहत जाइ अानन खोता वसि ।
सुकवि कहत तुम सँच याहि स मोमुख़ काँ ससि ॥ ८३९ ॥ . जो मृगनयनी के सदर वेनी परसत पाय । ताहि देखि मन तीरथन - विकटनि जाय चलाय ॥७१६॥ विकटनि जाय वलाय लखें काञ्ची कटि झूलते । रोम रोम मानस मोहे
- लखि कविता भूलते ॥ बात चात सुरधुनी मिलें सु कटाच्छ विराजा । सुकवि
सरस्वति वसीकरन तिय भजि तजि लाजा ॥ ४२ ॥ । तजत अठान न हठ परयौ सठमति आठ जाम ।। रहे वाम वा वाम की भयौ काम वेकाम ॥ ७१७ ॥ | भयो काम चेकाम धाम के सहजसनेही । आदर दमदम करत तऊ मम दाहत देही । धान न छाड़त वाम बहकि छाँड़त है चीनन । ठान अठान ।। न लवत सकचि चह तजत अटान न ।। ८४३ ।।
- ४ दसटी इङ्गारमुलगती र देवकीनन्दन टीका में नहीं है ॥
• ४ दश नपरचका, रिद अन्य दत्तकबि को टका रमतगतो मी देवकी ५ भदभ ; ** १४ ४ ४ : जिन शब्द ॐ न३ १ ४ ३ ३ ॐ भो नाम है । ३. ३४ १ अर , ऋर सतिश र देयकीनन्दन टीका में नहीं है।