विहारीविहार । २११ । | पुनः । | भरी अनेक सवाद निरखि कुण्डलिया कीनी । कोउ खल सो हरि लई । देखि कविता रसभनी ॥ पुनि में कठिन करेजो के विरची सौ सात हु ।। कोसलेस के हाथ दई जिन मान कियो बहु ॥ ८३४ ॥
- संवत ग्रह सास जलधि छिति छठ तिथि बासर चन्द ।
चैत्रमास पुछकृ% मैं पूरन आनंदकन्द ।। ७०८ ॥ | पृरन आनंदकन्द कियो यह ग्रन्थ विहारी ! हम हू या पै कुण्डलिया वहु- विधि रचि डारी । चैत सुक्ल नवमी क पूरा कियो टानि ब्रत । सुकंचि जुगुल सर निधि ससधर के विक्रम संवत १९५२ ॥ ३५ ॥ - गुरुजन दूजे व्याह कों नित उठि रहत रिसाये । । पति की पति राखति बहू आपुन बाँझ कहाय ।। ७०९ ॥ पुन चाँझ कहाय पीय की आस पुरावै । सन्तति को फल भाषि और हूं जिय उकसावे ॥ सुकवि सतिदुख विसरि पिय हिँ अरप्यो तन मन धन । धन्य धन्य बह तिया सबै तोपत निज गुरुजन ॥ ८३६ ॥ अन्त मरेंगे चलि जरें चढ़ि पलास की डार । फिर न मरें मिलिहें अली ये निर्धम अंगार ।। ७१० ॥
- ये निर्धम अगार नाहि आधार जरावत । फूलडारपातन के नॉहिन कछु
सतावत है। दिव्यअगिन विधि रची वाहि नहिं व्यर्थ करेंगे। सुकवि चलो चलि जरें जिये है अन्त मेरेगे ।। ८३७ ॥ १५ । मंद इ, एरिका रिप्रसाद के ग्रंथ दत्त कवि की टीका, मैं ऋारमगतो ।
- न क; नए कोई दि ऐमा भी कहते हैं कि उम छठ को मीमयार नहीं था।
- 1 रिट ."नवरचन्द्रिका उत्तटोका र रमसुदी में नहीं है । यह दोहा
१४भः ॐ इन्द, परन्ट्रिक कदह टीका, रमसानो चीर यकीनन्द टोका में नहीं है।