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बिहारी बिहार ।

बिहारीबिहार।

  • तौ बलि यै भलिये बनी नागर नन्दकिसोर ।

जो तुम नीकै कै लखौ मोकरनी की ओर ॥ ६९६ ॥ मकरनी की ओर लखें औगुन ही पैहो । गनवे की मन धरे नाथ औरो घबरैहौ ॥ सुकबि हिसाबन तजहु पतितपावन तुम हो जौ । छमहु सवै अप- राध उधारहु मो हू कों तौ ॥ १५ ॥ हरि कीजतु तुम सौं यहै बिनती बार हजार ।। जिंहिँ तिहिँ भाँति डरयौ रहौं परयौ रहीं दरबार ॥६९७॥ | पर रहों दरबार चरनरज सिर पै धारौं। होइ रोमाञ्चित पुलकित तुमरो । | नाम उचारों ॥ चंवर दुराइ प्रनाम करौं साष्टाङ्ग भूमि परि । सुकबि कछु नहिँ । चहौं भीष यह मोहि दीजै हरि ॥ ८१६ ॥ | परयो रहौं दरबार द्वार झारू सौं झाडौँ । कालिन्दीजल अनि नित्त मन्दिर । हिँ पखारौं ॥ सन्तन के पग दाबि रहाँ कोऊः कोने परिः । सुकबि जिय जौ । से लौ तौ ल भाष हरि हरि हरि ॥ ८१७॥ . | परयो रहाँ दरबार एक तुमरे रँग राच । छन छन तुम को सुमिरि होइ । पुलकित पुनि नाच ॥ नित हरिजनसँग रह नाम अमृत जहँ पीजतु । सुकवि गरूरहिँ तज यहै बिनती हरि क्रीजतु ॥ १८ ॥ निज करनी सकुचाँहि कत सकुचावत इहिँ चाल। मो हू से अति बिमुख सौं सम्मुख रहि गोपाल ॥६९८॥ सम्मुख रह गोपाल मोहि अति क्यों सकुचावत । मोसे अधम कृतघ्न में हूं क सुख दरसावत मो सौं मेरे पापन की गति जाति न बरनी । दया में भरी तुम सुकवि करत तोऊ निंजकरनी ॥ ८१९ ॥ यह दोही कृपणदत्तकवि के ग्रन्य में नहीं है। बलियै भलियें बनी बलिहारी ही है बनी रही के ।

  • लिये ये कई ठिकाने बिहारी ने लिखाहै जैसे वैसौ यै जानौ परत झगा ऊजरे माह '॥ ।