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बिहारी बिहार ।

विहारीविहार । | गिरिधारी उर धारि सुरति करि मुरलीधर पै। माधव की करि साध वारि मन राधावर पै ॥ आनंदवुन्दन उमग मुकुन्द हि के जोहन स । सुकवि छवीले छह माह करि मनमोहन स ॥ ७६.३ ॥ तो लागि यो मनसदन में हरि आवहिँ किहिँ वाट । | निपट विकट जब लगि जुटे खटे न कपट कपाट॥६७९॥ खुटे न कपटकपाट मोह को गढ़ नहिँ टुट्यो । विषयवासनामहानदी को । घाँध न फूट्यो । काम कोह के कण्टक हू नहिँ टारे जौ लगि । सुकवि सलोने स्याम कहो किमि आवै तौ लगि ॥ ७६४ ।।

  • बुधिअनुमान प्रमान श्रुति किये नीठि ठहराई ।

सूछम गति परब्रह्म की अलख लखी नहिं जाई ।। ६८० ॥ अलख लखी नहिँ जाइ कोऊ किमि ताहि लखावै । कहत कहते थकि । नेति नेति काहे वेद हु गावे ।। कपिलादिक की राय सुनत पुनि और जात सुधि । सुकवि सर्वगुन जानि फेर धीरज धारत बुधि ।। ७६.५ ॥ या भवपारावार का उलँघि पार को जाय ।। तियछविछायाग्राहिनी गहै वीच ही आय ।। ६८१ ॥ गहें घीच ही अाय कहें छुटन नहिं छोड़ी । सवै विगारत काम मरोरत हीय निगोड़ी ॥ सुकवि जहाज हिं गहह मुरलियावारे माथवे । तो पुनि करिहें । कहा कलोलान कपटी या भव ॥ ७९६ ॥ ताजे तीरथ हरिराधिका तनहुति करि अनुराग । जिहिं ब्रजकॅलिनिकुंजमग पग पग होत प्रयाग !! ६८२ ॥ • ” प्रस्ट आदि शनि । म = ==

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