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बिहारी बिहार ।

| २०० : बिहारीबिहार।।

  • जाइ परें कर परै न तो निगुनी दरसावै । परे सरस के हाथ सुभग गुन

स लपटावै ॥ थिरचढिग अरु दूर सोई आनँद को बटुआ। खेल खिलावत सवहिँ सुकबि नँदनन्दन लटुआ ॥ ७६० ॥ जात जात वित होते है ज्यों जिय मैं सन्तोष ।। | होत होत जो होय तो होय घरी मैं मोष ॥ ६७६ ॥ होय घरी मैं मोष संतोष जु साँचो होवै। जल सरोज ज्यों रहे विषयविष दिस नहिँ जोवै ॥ सब कछु प्रभु को अहै यह निहंचें ठाने चित । सुकवि . रहत हू रहे रहत ज्याँ जात जात वित ॥ ८६१ ॥ ब्रजबसिन को उचित धन सो धन रुचित न कोई।

  • सु चित न आयो सुचितई कहाँ कहाँ ते होई ॥६७७॥

कहो कहाँ ते होइ सुचितई जग जालन सौं। जो अरुझान्यो रहै सदा सुत वित बालन सौं ॥ संग्रह सब दिन करते हहा विष की रासिने को । विसरत मूढ़ गॅचार सुकबि धन ब्रजवासन को ॥ ७९२ ॥ मनमोहन साँ मोह करि तू घनस्याम सँभरि।। कुंजबिहारी सौं बिहरि गिरधारी उर धारि ।। ६७८ ॥ कालते हैं कि राजा जयसाह जिस निगुनी को भी अपने पास रखें तो वह गुणी कहावै औ अपने पास ।

  • से छुट जाय तो गुणहीन कहावै ॥ प्रायः अब भी दरबारों में देखा जाता है कि जब कोई नया पुरुष
  • वहाल हुआ तो विद्वान् हो तब तो यश होना उचितही है पर मूर्ख हो तो भी चुटकी बजाने वाले उसे

ने बढ़ा देते हैं और कुछ दिन उसकी प्रतिष्ठा रहती है परन्तु जब वह कोई अपबाद लगा कर निकाल

  • दिया जाय तब देर में उस पर दोषों ही की कल्पना होती रहती है। यह बात उनी देवरों की है।

जहां प्रभु मुसाहबों के हाथ में रहते हैं। बिहारी कवि जयसाह की गुणग्राहिता से अतिप्रसन्न . न थे । में यह आगे के दोहों से भी प्रगट होगा ॥ - * सो चित्त में न आया तो । .... .