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बिहारी बिहार ।

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विहारविहार। *गोधन तू हरड्यो हिये घरि इक लेहु पुजाइ ।' समुझ परे गी सीस पर परत पसुन के पाइ ॥ ६२९ ।। परत पसुन के पाइ केस से घास उपारत । गोपन हूँ के खोदि सुइँग बहु धातु निकारत । वृषभ हुई हैं टक्कर तोहि चाखे कै सींगन । सुकबि निकरि है तबै सबै यह पूजा गाधन ॥ ७३३ ॥ नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिँ बिकास इहिँ काल । अली कली हा ते बँध्य आगे कौन हवाल ॥ ६३० ।। आगे कौन हैवाल जबै अंग अंग मधुरैहै । खिलिहै सुन्दर रूप लखत नैनन बस कैहे ॥ निज सौरभ क व्यापित कैहै झूमि गगन महिँ । केसर * दुति नहिँ अवै सुकवि मधु नहिँ पराग नहिँ ॥ ७३४ ॥ जिन दिन देखे वे कुसुम गई सो बीन बहार ।। अब अलि रही गुलाब मैं अपत कंटीली डार ॥ ६३१॥ अपत कँटीली डार रही अब महाभयङ्कर । सूखी कहुँ कहुँ टूटि लडकि हु । गई अधिकतर ॥ सुकबि दसा यह देखि हाय दुख पावत छिन छिन । हवा भय व दिवस छटा तुम दुखी जिन दिन ॥ ७३५ ॥ इहीं आस अटक्यौ रहै अलि गुलाब के मूल । है हैं फेरि बसन्त ऋतु इन डारनि वे फूल ॥ ६३२ ॥ इन डारनि वे फूल होइहैं फेर कोऊ दिने । सीतले मन्द सुगन्ध बयारि । हूँ चलि है दच्छिन । त्याँ मकरन्द पराग हु झरि है पूरि सुबासा । सुकबि दिलासा भयो अली अटक्यो एहिँ आसा ॥ ७३६ ॥

  • गोधन = गोवर्धन ॥ ते के साथ ले नहीं हो सका लेहु का कर्त्ता तुम होता है ( यह दोष है) * जैसी प्रसिद्धि है, कि बिहारी का यही दोहा प्रथम जयसाह के आगे पहुँचाथा ॥