पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१९८

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115,443,433333333334431433333 विहारीवंहार ।। मार सु मार करी खरी अरी मरी हि न मरि । साँच गुलाब घरी घरी अरी बरी हि न वारि ॥ ३८८।। ३. अरी वरी हि ने वार चावरी तू चिन काजै । ॐ हरि की कथा सुनाउ दया

  • जो तोहिय राजै ।। सुकाव मिलन की आस एक अवलम्व उधारक । नाहँ

। तो कैसँ बचती माख्यो मार सु मारक ॥ ४६२ ।। अरे परे न करै हियौ खरे जरे पर जार।। लावत घोरि गुलाव से मिले मिलै धनसार ॥ ३८९ ॥ मिलै मिलै घनसार और चन्दन क्यों लावत । मरत मरत हू हाय अधिक में क्यों पर चढ़ावत ॥ जीवन है मम मरन जीइहाँ साँच हूँ मरे । सुकवि लाउ हालाहल खस क करि परे अरे ॥ ४६३ ॥ . . . . . . . . कौन सुने कासौं कहाँ सुरति विसारी नाह ।। | वदावदी जिय लेत हैं ये बदरा बदराह ।। ३९० ।। ये बदरा चदराह वदी १ भये उतारू । लेत करेजो काढ़ि अहैं ऐसे वट- पारू । विन हरि नाहिँ उपाय सुकवि हृ साचि कहे का । घबराई तिय देखि कौन से कौन सुने का ॥ ४६४ ।। | फिरि सुधि दे सुधि द्याय प्यौ इहिं निरदई निरास । नई नई बहुरों दई दुई उसास उसास * ॥ ३९१ ।। दई उसास उसास बहुरि बिरहागी जागी । हती सुरछा सुखमय सी साऊ जन भागी ॥ फर बढ़ाई अधि अधि आउन की बुधि दें । सुकवि हहा हैं । में कहा कि पिय की फिरि सुधि दे ॥ ४६५ ॥ में भर में रिक्षा भी सुनाई जाती है। • द दो र प्रमाद के अन्य में नहीं हैं। इमाम को इनाम दिया है