विहारबिहार। वरसि रहे की बाय बारि मिले वारि रही आत 1 धूम घटा दृग दिये जात नाहिँ घबरानी मति ॥ सुकाव ताहु पै कालतरज सो लगैः गरजरव ।
- ॐ कुन्द करत जनु होय कुन्दकलिका विकसत. नव ॥ ४५८॥ : ...:.. ।
• विरहजरी लखि जगनानि कही सु वह कै वार। अरी आव उठि भीतरें बरसत आज अँगार ॥ ३८५॥ वरसत आज अँगारभार भय करत माग री। निरखि नीर विरहीनरना- में सन नवलनागरी ॥ * दहकि दहकिं दहकाइदाहदह दहतः दोहः सखि। सुकवि वीर बाहिर न बैठि बहु बिरहजरी लखि ॥ ४५६ ॥ धुरवा हाँहिँ न अलि उठे धुवाँ धनि चहुँकोद । जारत आवत जगत कौं प्रावस. प्रथमपयोद ॥ ३८६.॥ ३. पावसप्रथमपयोद त्रिलोक हिँ लेखहु जरावत । जुगनू चिनगी कोटि कोटि
- हियरो हहरावत ॥ यह दुख लखि जनु रोवत गगन पुकारत मुरवा । सुकबि
अहँ घनस्याम नाहिँ ये पापी धुरवा ॥ ४६० ॥ पावकझर तें मेहझर दाहक दुसह विसखि । | दहै देह वाके परस याहि दृगन हीं देखि ॥ ३८७॥ याहि दृगन हाँ देखि देह दहदह कै दहकत । धुरवधूम न धूम सरिस लखि हिय अति चहकत ॥ सुकाबि स्याम के बिन पतङ्ग सो जीय रह्यो । जर । विज़री लपकात निदरि रही है खरपावकंझर ॥ ४६१॥
- कुन्द = कुरा । ' जगन = ज्योतिरिङ्गण = जुगनू “नडति” ह०प्र० का पाठ है ॥
. सलग सुलग के जलन के कार को उत्तेजित करके अंत्यन्त जलाता है ॥ श चारों ओर || मेघों की धूम (भौड़ )