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२ १०२ . बिहारीवहार । . .

  • कै बा आवत इहिँ गली रह्यौ चलाय चलैन ।

दरसन की साधै रहै सधे रहत ने नैन ॥ ३४३ । । । सूधे रहत न नैन महल ही के दिस देखत । ग्रीवभङ्ग के रहत इतै उत कछू न पेखत’ ॥ झुक्यो उतै मुख लेख्यो लख्यो उनको हम जै वा ।। | प्यारी ही पै विक्या सुकवि आवत ह्याँ कै बा ॥ ४१४॥.. | देखें जागत वैसिये सँकरि लगी कपाट । कित व्है आवत जात भाजे को जानै किहिँ बाट ॥ ३४४ ।।। को जानै किहिँ वाट भटू नागर नट आवत । आँखि लगत ही आँखिन में पै जनु अँऑखि लगावत ॥ सुकवि चहत ज्याँ धाइ धरेन ता ही छन भागत ।

  • नींद टुटे पै साँकर लागी देख जागते ॥ ४१५ ॥

पुनः । ३ को जानै किहिँबाट आइ चट मटका फोरत । पट झटकंत मटकाई भौंह दृग स दृग जोरत ॥ जैसे चरितन सुनत सोई सोवत नित पेखौं । । खैहै वह दिन कबै सुकबि जागत हरि देख ॥ ४१६ ॥ सुख सौं बीती सब निसा मनु सोये इकसाथ । मूका मेलि गहे जु छन हाथ न छोड़े हाथ ॥ ३४५ ॥ | हाथ न छोड़े हाथ अचानकं दै मोखा सौं। धीमे धीमे धाय धरे हरि नै धोखा स ॥ सोई सुपन मैं लख्यो स्याम बरन का मुख स । सुकबि मिलत । बतरांवत निसि सब बीती सुख सौं । ४१७ ॥ यह दोहा संस्कृत टीका हरिपकांश ओर अनवरचन्द्रिका में नहीं है । नायक कई वैर इस गली में आता है पर उसके नेत्र सुध नहीं रहते चलाने से भी नहीं चलते इस लिये हमें*दरस की साध हो । रही ॥ कैवा = कैवार ( टिप्पणी दो० ४५) यह उत्तम भाषा नहीं है । * नींद आते ही मानो आखों” । 4 पर नजर लगाता है ॥ इद नायिका सखी से ॥ मोखे मै हाथ डाल के हाथ पकड़ा सो इस विषय के "

  • स्वप्न में सारी रात ऐसे सुख से वौती मानों एक साथ सोंचें ॥ . . . . .