पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१७०

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विहारविहार ।। तिय निजहिय जु लगी चलत पिय नखरेखखरोट । सूकन देति न सरसई खेटि खटि खतखोट ।। २९१ ।। • खेटि खटि खतखोट सरसई और चढ़ावत । पियसदन के दाग देखि । सारी न धुवत ।। पचत नाहिँन पाक कपोलन प्रेमभरे जिय । टुट्यो हार । गुहावत नहिँ यह लखहु सुकवि तिय ॥ ३५१ ॥

  • वास संकोचदसवदनवस साँच दिखावति बाल।

| सियल सोधात तिय तन हिँ लगति अगानि का ज्वालं ॥ २९२ ।। लगति अगनि की ज्वाल माहिँ निज तन दै दीनो । दाहदहकदहकाई

  • देह कंचन सो कोनो ॥ अव चाहति है मिलेन पीय स गाढ प्रेम गसि ।।

सुकवि स्याम हिय राखि रही है स्यास हिये वसि ॥ ३५२ ॥. +नेकु न झुरसी विरहझर नेहलता कुम्हिलाति ।। | नित नित होति हरी हरी खरी झालराति जात ॥ २९३ ॥ खरी झालरात जात देखियत नित्त डहडही । दीरघसँसझपट्टन हूँ। अति होत लहलही । लालगुलाबअँगारन हैं पुनि कछु न भुरसी । सुकवि । नेह की वेल विरहझर नकु न कुरसी ॥ ३५३ ॥ ३ . खलबढ़ई वल करि थके कटे न कुवतकुठारे । | आलबाल उर झालरी खरी प्रेमतरुडार ॥ २९४ ॥ | खरी प्रेमतरुडार जरै नहिँ विरहदवागी । लागे अँसुवनझोक और है

  • दृढता पागी । त्यो कलङ्का लागे जउ भई आत प्रवल । अमरलता लहि

सुकवि सँजीवन हार गये ग्वत ।। ३५४ ॥ • यह र प्रकाश में नई ६ } - यह दोहा हरिप्रसाट ३ अपने ग्रये में मुं० ३६५. पौर में : ३३३ ६ ४ ३ निवा ? र यो पदभेद से दो वैर अनुवाद भी किया है ।। यह दोहा रिका के पद में नही है ।