पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१६७

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विहारिवहार ।।


कीने हूँ कोरिकजतन अब गहि काढ़े कौन । भौ मन मोहनरूप मिलि पानी में को लौन ॥२८० । । पानी मैं को लौन होत है तन्मय जैसँ । मन हू तन्मय भयो रूप निज खोयो तैसें ॥ चहु विधि लहरें खाइ रह्यो थिर होत न केहूँ । नहिँ डुबै नहिँ तरै सुकवि जतनन कीने हूँ ॥ ३३६ ॥ पुनः पानी मैं को लौन तपायें तें जल त्यागे । बिरहतएँ यह अधिक अधिक ताही रँग पागै ॥ गलिमिलि एकै भयो लखै को चित दीने हूँ । सुकबि अ- लग नहिँ होइ सकत बहु स्रम कीने हूँ ॥ ३४० ॥ | *फिर फिरि चित उत ही रहतु टुटी लाज की लाव+ । अङ्ग अङ्ग छवि झौंर मैं भयो भौंर की नाव ॥ २८१ ।। भयो भाँर की नाव परयो अंग झोकाफोकी । आँधी चाह हु उड़ी कोऊ

  • विधि रुके न रोकी ॥ आसपालं तनि रह्यो लिये ही जात अहै इत । सुकवि *
  • होत अनुकूल नाहिँ काँपत फिरि फिरि चित ॥ ३४१ ॥

| +ओठ उचै हाँसीभरी इग भहन की चाल । | भोमन कहा न पीलियो पियत तमाखू लाल ॥ २८२ ॥ पियत तमाखू लाल पियो मेरो मन छन मैं । चूँकि चूँकि जनु अगि जगाई मेरे तन मैं ॥ धुआँ उड़ाइ उड़ाई नाँद दृगजुग तरसायो। सुकवि पवासँग अधिक अधिक जनि मोहि तपाओ ॥ ३४२ ॥ । जुलु यह दोहा कृष्णदत्तकवि के ग्रन्थ में नहीं है। लाव = रस्सी = लहासी । । कौं रेहा अनवरचन्द्रिका में नहीं है। पुराने कवियों में तमाखु गाजे आदि के वर्णन की चाल

    • हुई =हा। इस दोहे के बिहारीकृत होने में सन्देह भी होता है ।।