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विहार ३

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विहारविहार । चितवित वचत न हरत हठि लालनदृग वरजोर ।। सावधान के वटपरा ये जागत के चोर ॥ २७७ ॥ . ये जागत के चोर करत जादू सो छन मैं । सब सुधि बुधि हरि कै विप । सो वगरावत तन मैं ॥ दिन हीं डाँका देत करते हैं जुलुम नितै नित ।

  • सुकवि कितै अब जाँहिँ स्याम दृग छीन्यो चित वित ॥ ३३५ ॥

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54Ek 15 ये जागत के चोर अहैं डॉकू पुनि दिन के । महा उचक्के चक रहित चतु-

  • रन अनगिन के ॥ छलिया छलचलभरे छवीले छलिन छतें नित । धीरधुरन्धर

सुकवि हु के ये हरत हेरि चित ॥ ३३६ ॥ डर ने टरै नींद न परे हरे न कालबिपाक । छनछाकै *उछकै न फिर खरो विषम छबिछाक ॥२७८।। खरो विपम छविछाक रोम ही रोम समावै । मारमार हू हटै नाहिँ उपचार चढ़ावे ॥ मद अफीम संखिया नहीं इमि नसा सकें कर । सुकवि विरह के + दहनदहन है स होत न डर ।। ३३७ ॥ -- - - .. .

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| चखरुचिचरन डारि कै ठग लगाय कै साथ । रह्यो राखि हठ लै गयो थाहथी मन हाथ ॥ २७९ ।।। थाहथी मने हाथ लेइ कै मति भरमाई। पूँगी कछुक वजाइ हूँकि फेंका चतुराई ।। कछु कछु जुलुफ कॅपाइ कैंपायो सिगरो सिखनख । वसीकरन सो कियो सुकवि हरि नेक मोरि चव ॥ ३३८ ।

  • * * -- इतरं 'विक = छवि का नगा । मारमार = कामदेव की मार में सार में और

नशा तो र जाता है पर यह भार में नहीं उतरता ! ४ दहन दहन = अग्निदार । पूगी = वंशी । । शुर में यूग वज्ञान भी राजपुताने में प्रसिद्ध है जैसे महुंदर वैलने में । | फुके - जला दबा उड़ाई ६ -

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