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| विहारीविहार । ४७
- : भेटत वनत न भाँवतो चित तरसत अति प्यार।.. .
धरति उठाय लगाय उर भूषन बसन हथ्यार ॥ १४६ ॥
- . भपन वसन हथ्यार जो ई जो ईतिय पावति । आनँदअँसुअन सींचि सो ई
स ई उर लावति । पुलकडहडहे नैनन पिथ काँ निरख हु सकत न । प्रेम- बावरी तिया सुकवि भई भेटत वनत न ॥ १९२ ।। विछ्रे जिये सकोच यह मुख कहत न बैन । दोऊ दौरि लगे हिये किये निचाँहैं नैन । १४७ ।। किये निचाहें नैन रहे दोऊ दोउन जकरे । चित्रलिखे से दोऊ दुहुन कर । साँ कर पकरे ॥ दोऊ दोउन साँचि रहे जल कज्जलनिचुरे । सुक
- दोउ मिले आजु कोऊ दिन के विलुरे ॥ १३ ॥
किये निचाहें नैन राम लछिमन दोउ भाई। मूरति से गये ठठकि दोऊ : दोउन उर लाई ॥ देव हु बरसत फूल नगरवासी जय जय कह । सुकवि सकत नहिं भापन विठुरे जिये सँकोच यह ॥ १४ ॥
- ज्या ज्य पावकलपट सी तिय हिय सौं लपटाति ।
त्यौं त्यै छुही गुलाब की छतियाँ अति सियराति ॥१४८॥ | छतियाँ अति सियराति बुझत उमॅगीं विरहगी । हीतल सीतल होत जात मन आनँद पागी ॥ अङ्ग उमङ्गन भरत सुकवि हूँ वरनि सकै क्यों । हरसत सरसत नैन तय कसि आलिङ्गत ज्यों ।। १६५ ॥ - पुनः । --- - - -- - - - -- - by--
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आयो मीत विदेस ते काह कह्यो पुकारि ।... सुनि हुलसी विहँसी हँसी दोऊ दुहुँनि निहारि ॥ १४९॥ दोऊ दुहुँन निहारि रहे दोउन के नैना । मुख अरुनाई छई चदन तें कढ़त ३ भरतमिलाप का प्रकरण । र यह दोहा ऊदत्तकवि के ग्रन्थ में नहीं है । - ६. -