पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/१०८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

| विहारीबिहार ।। | तु मत माने मुकतई किये कपटवत* कोटि। | जौ गुनहीं तौ राखिये आँखिन माँहि अंगोटि ।। ७८ ॥ - ऑखिन माँहि अँगोटि राखु री पिय की दुलरी । हार मानि मत वैठि सखिन विच तो कछु : खुल री ॥ हिय राखति क्याँ गाँठि बात तो हम सब जानै । सुकवि कपट करि कोटि मुकतई तू मति मानै ॥ १११ ॥ धनि यह हैज जहाँ लड्यो तज्यो दृगनि दुखदन्द ।। तुव भागनि पूरव उयौ अहो अपूरब चन्द ॥ ७९ ॥ ' । अहो अपूरव चन्द उयो यह हित कलङ्का । पूरन मण्डल तऊ राहु की । नहिँ कछु सङ्का ।। विम्बउरगसृगवालजुगल निजगोद लिये अह। सुकवि याहि । जो लखे तासु जीवन धनि धनि यह ॥ ११२ ॥ 4 44441414 - -. . - - एरी यह तेरी दुई क्यों हूँ प्रकृति न जाय । . नेहभरे हिय राखिये तू रूखियै लखाय ।। ८० ।। तू रूखिये लखाय कौन की नजर लगी तोहि । रहत उनसनी सदा यास सेका अति ही मोहि ॥ निज पर की सुधि नाहिँ वदन पियराई घेरी । कैसे : मिटिहे सुकवि हाय चिन्ता यह एरी ॥ ११३ ॥ पुनः ।। तू रुखियै लख़ाय सखिन के नेह सिँचानी । सदा + रागसँगसँग त पीरी दरसानी । किती करत थिर तऊ देह काँपत अलि तेरी । सुकवि वृ- झि हू वृझत नहिं को व्हे गयो एरी ॥ ११४ ॥

  • कपट की बात कपटवः, ( पठीतत्पुरुष ) - न अपना अभिप्राय प्रगट कर।

ः यः दी। नवरदन्ट्रिका में ना।” हैं। x राग == गानभेट प्रथा लन्लाई। ० : ॐ मन्दि बिहारी जी ने भी निरया है " दीपमिरजानी देह" । । ..-. ..- . . 4. .. 4 . ## .. १९६५," , ५)