अन्वय—कुच-गिरि चढ़ि, अति थकित ह्वै, डीठि मुँह चाड़ चली, चिबुक की गाड़ परी परियै रही, फिरि टरी न।
कुच=स्तन। डीठि=दृष्टि=नजर। चाड़=चाह। परियै रही=पड़ी रही। चिबुक=ठुड्डी। गाड़=गढ़ा।
स्तन-रूपी (ऊँचे) पर्वत पर चढ़, अत्यन्त थककर, दृष्टि—मुख (देखने) की चाह में (आगे) चली। (किन्तु रास्ते में ही) ठड्डी के गढ़े में वह (इस प्रकार) जा गिरी कि (उसी में) पड़ी रह गई, (वहाँ से) पुनः (इधर-उधर) टली नहीं।
नोट—'चिबुक की गाड़' पर एक संस्कृत कवि की उक्ति का आशय है कि ब्रह्मा ने सुन्दरी स्त्री को जब पहले-पहल बनाया, तब उसके रूप पर आप ही इतने मुग्ध हुए कि ठुड्डी पकड़कर भर-नजर देखने लग गये। उसी समय कच्ची मूर्ति की ठुड्डी उनके अँगूठे से दब गई। वही गढ़ा हो गया!
ललित स्याम-लीला ललन चढ़ी चिबुक छबि दून।
मधु छाक्यो मधुकर पर्यौ मनौ गुलाब-प्रसून॥९५॥
अन्वय—ललित स्याम-लीला, ललन, चिबुक-छबि दून चढ़ी, मानौ मधु छाक्यौ मधुकर गुलाब-प्रसून पर्यौ।
ललित=सुन्दर। स्याम-लीला=गोदने की बिन्दी। दून=दूना। मधु छाक्यौ=रस पीकर तृप्त। मधुकर=भौंरा। प्रसून=फूल।
सुन्दर गोदने की (कोली) बिन्दी से, हे ललन! उसकी (गुलाबी) ठुड्डी की शोभा दूनी बढ़ गई है, (जान पड़ता है) मानो मधु पीकर मस्त भौंरा गुलाब के फूल पर (बेसुध) लेटा हुआ है।
नोट—'पद्माकर' के इसी भाव के एक कवित्त का पद है--'कैधों अरबिन्द में मलिन्दसुत सोयो आय, गरक गोविन्त कैधों गोरी की गुराई में।' अपने 'तिल-शतक' में मुबारक कवि तिल को यो प्रणाम करते हैं—
गोरे मुख पर तिल लसै, ताको करौं प्रणाम।
मानहु चंद बिछाय के पौढ़े सालीग्राम॥
डारे ठोढ़ी-गाड़ गहि नैन-बटोही मारि।
तिलक-चौंधि मैं रूप-ठग हाँसी-फाँसी डारि॥९६॥