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सटीक : बेनीपुरी
 

बिलग नहीं देख पड़ती; क्योंकि उसका रंग और उसकी सुगन्ध तथा कोमलता गाल के रंग, सुगन्ध और कोमलता में एकदम मिल-सी गई है।

लसत सेत सारी ढप्यौ तरल तर्यौना कान।
पर्यो मनौ सुरसरि-सलिल रबि प्रतिबिम्बु बिहान॥९२॥

अन्वय—सेत सारी ढप्यौ कान तरल तर्यौना लसत, मनौ सुरसरि-सलिल-बिहान-रवि-प्रतिबिम्बु पर्यौ।

तरल=चंचल। बिहान=प्रातःकाल।

उजली साड़ी से ढँका हुआ उसके कान का चंचल कर्णफूल ऐसा सोह रहा है, मानो गंगा के उज्ज्वल जल में प्रातःकाल के सूर्य का (सुनहला) प्रतिबिम्ब आ पड़ा हो।

नोट—यहाँ सोने का कर्णफूल प्रातःकाल का सूर्य है, और साड़ी गंगा का स्फटिक-सा स्वच्छ जल।

सुदुति दुराई दुरति नहिं प्रगट करति रति-रूप।
छुटैं पीक औरै उठी लाली ओठ अनूप॥९३॥

अन्वय—सुदुति दुराई नहिं दुरति, रति-रूप प्रगट करति, पीक छुटै ओठ अनूप लाली औरै उठी।

मुदुति=सुद्युति=सुन्दर कान्ति। रति-रूप=रति का रूप, कामदेव की स्त्री 'रति' अत्यन्त सुन्दर कही जाती है; अतएव यहाँ 'रति-रूप' से अर्थ है सौन्दर्य का अत्यन्त आधिक्य। दुराई=छिपाये।

सुन्दर कान्ति छिपाने से नहीं छिपती, वरन् (ऐसी चेष्टा करने पर) वह और भी अपरूप सौदर्य प्रकट करती है। पान की पीक (या लाली) छुड़ाये जाने पर ओठों की अनुपम लाली और भी बढ़ गई है।

नोट—नायिका अपने ओठ की ललाई को पान की लाली समझकर चार-बार उसे छुड़ा रही है; किन्तु ज्यों-ज्यों पान की लाली छुटती है, त्यों-त्यों उसके ओठ की स्वाभाविक लाली और भी खिलती जाती है।

कुच-गिरि चढ़ि अति थकित ह्वै चली र्डीठि मुँह चाड़।
फिरि न टरी परियै रही परी चिबुक की गाड़॥९४॥