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सटीक : बेनीपुरी
 

अन्वय—दोऊ दुहुनु रस मिजए तउ ठिकि रहे न टरैं, नैन पिचकारी प्रेम-रँग भरि छबि सौं छिरकत।

भिजए=शराबोर कर दिया। ठिकि रहे=डटे रहे।

दोनों ने दोनों को रस से शराबोर कर डाला है, तो भी दोनों अड़े खड़े हैं, टलते नहीं। (मानो फाग खेलने के बाद अब) नैन-रूपी पिचकारी में प्रेम का रंग भरकर सुन्दरता के साथ (परस्पर) छिड़क रहे हैं।

गिरै कंपि कछु कछु रहै कर पसीजि लपटाइ।
लैयौ मुठी गुलाल भरि छुटत झुठी ह्वै जाइ॥५५८॥

अन्वय—कछु कंपि गिरै, कछु कर पीजि लपटाइ रहै, मुठी गुलाल भरि लैयौ छुटत झुठी ह्वै जाइ।

कंपि=काँपना। छुटत=छूटते ही, चलाते ही। झुठी=खाली।

कुछ तो (प्रेमावेश में) हाथ काँपने से गिर पड़ती है, और कुछ हाथ के पसीजने से उसमें लिपटी रह जाती है। मुट्ठी में अबीर भरकर तो लेती है, किन्तु चलाते ही (वह मुट्ठी) झूठी हो जाती है—नायक की देह पर अबीर पड़ती ही नहीं।

ज्यौं-ज्यौं पटु झटकति हठति हँसति नचावति नैन।
त्यों-त्यौं निपट उदार हूँ फगुवा देत बनै न॥५५९॥

अन्वय—ज्यौं-ज्यौं पटु झटकति हठति हँसति नैन नचावति त्यों-त्यौं निपट उदार हूँ फगुवा देत न बनै।

पटु=अंचल। झटकति=जोर से हिलाती वा फहराती है। हठति=हठ करती है। निपट=अत्यन्त। फगुवा=फाग खेलने के बदले में वस्त्राभूषण या मेवा-मिठाई आदि का पुरस्कार।

ज्यों-ज्यों वह (नायिका) कपड़े (अंचल) को झटकती है, हठ करती है, हँसती है और आँखों को नचाती है, त्यों-त्यों अत्यन्त उदार होने पर भी (इस हाव-भाव पर मुग्ध होकर, नायक से) फगुआ देते नहीं बनता।

छकि रसाल-सौरभ सने मधुर माधवी-गंध।
ठौर-ठौर झौरत झँपत झौंर-झौंर मधु-अंध॥५६०॥