अन्वय—फागु खेजत खियालु पिय लखि चखनु मैं जु दियौ सु अति पीर बाढ़त हूँ गुलालु काढत न बनतु।
लखि=ताककर। चख=आँखें। खियालु=कौतुक, विनोद, चुहल। पीर=पीड़ा। सु=सो। गुलालु=अबीर।
फाग खेलते समय कौतुक-(विनोद)-वश प्रीतम ने ताककर उसकी आँखों में जो (अबीर) डाल दी, सो अत्यन्त पीड़ा बढ़ने पर भी उससे अबीर काढ़ते नहीं बनता (क्योंकि उस पीड़ा में भी एक विलक्षण प्रेमानन्द है!)
छुटत मुठिनु सँग ही छुटी लोक-लाज कुल-चाल।
लगे दुहुनु इक बेर ही चलि चित नैन गुलाल॥५५५॥
अन्वय—छुटत मुठिनु सँग ही लोक-लाज कुल-चाल छुटी, इक बेर ही चलि दुहुनु चित नैन गुलाल लगे।
कुल-चाल=कुल की चाल, कुल-मर्यादा। इक बेर ही=एक साथ ही।
अबीर की मुट्टियाँ छूटने के साथ लोक-लज्जा और कुल-मर्यादा छूट गई। एक साथ ही चलकर दोनों के हृदय, नयन और अबीर एक दूसरे से लगे—अबीर (की मूठ) चलाते समय ही दोनों के नेत्र लड़ गये और दिल एक हो गया।
जज्यौं उझकि झाँपति बदनु झुकति विहँसि सतराइ।
तत्यौं गुलाल मुठी झुठी झझकावत प्यौ जाइ॥५५६॥
अन्वय—जज्यौं उझकि बदनु झाँपति झुकति बिहँसि सतराइ, तत्यौं गुलाल झुठी मुठी प्यौ झझकावत जाइ।
जज्यौं=ज्यों-ज्यों। उझकि=लचक के साथ उचककर। झाँपति=ढकती है। सतराइ=डरती है। तत्यौं=त्यों-त्यों। झझकावत=डराता है।
ज्या-ज्यों उझककर (नायिका) मुँह ढाँपती, झुक जाती और हँसकर डरने की चेष्टा (भावभंगी) करती है, त्यों-त्यों अबीर की झूठी मुट्ठी से—बिना अबीर की (खाली) मुट्ठी चला-चलाकर—प्रीतम उसे डरवाता जाता है।
रस भिजए दोऊ दुहुनु तउ ठिकि रहे टरै न।
छबि सौं छिरकत प्रेम-रँग भरि पिचकारी नैन॥५५७॥