(विरह-वश अत्यन्त दुर्बल होने के कारण) लम्बी साँसों के साथ लगी हुई (नायिका मानो) झूले पर चढ़ी-सी रहती है। (झूला झूलने के समान लम्बी साँसों के झोंक से झूलती रहती है) फलतः वह (ऊँची साँसों के साथ) विचलित न होकर (कभी) छः-सात हाथ इधर आ जाती है (और कभी छ:-सात हाथ) उधर चली जाती है (उसका विरह-जर्जर कृश शरीर उसीकी लम्बी साँस के प्रबल झोंके से दोलायमान हो रहा है।)
(सो॰) बिरह सुकाई देह, नेहु कियौ अति डहडहौ।
जैसैं बरसैं मेह, जरै जवासौ जौ जमै॥५००॥
अन्वय—बिरह देह सुकाई नेहु अति डहडहौ कियौ, जैसैं मेह बरसैं जवासौ जरै जौ जमै।
जवासौ = एक प्रकार का पेड़, जो वर्षा होने पर सूख जाता है। जैसे—अर्क जवास पात बिनु भयऊ—तुलसीदास। डहडहौ = हरा-भरा। मेह = मेघ। जौ = जीव, जड़, जपा, गुड़हर।
विरह ने देह को सुखा दिया और प्रेम को अत्यन्त हरा-भरा कर दिया, जैसे मेह के बरसने से जवासा जल जाता है और गुड़हर पुष्ट होता है।
षष्ठ शतक
(सो॰) आठौ जाम अछेह, दृग जु बरत बरसत रहत।
स्यौं बिजुरी ज्यौं मेह, आनि यहाँ बिरहा धर्यौ॥५०१॥
अन्वय—आठौ जाम अछेह दृग जु बरत बरसत रहत, ज्यौं बिजुरी स्यौं मेह बिरहा यहाँ आनि घर्यौ।
जाम = पहर। अछेह = निरंतर, सदा। जु = जो। बरत = जलती है। स्यौं = सहित। ज्यौं = जैसे, मानो। मेह = मेघ। आनि घर्यौ = ला रक्खा।