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बिहारी-सतसई
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(मेरे मान करने पर भी) ये सारे निर्लज्ज अंग (भुजाएँ, हृदय, आँखें, कपोल आदि) ललककर (उन्हें देखते ही) मिल जाते हैं, और मुझे लज्जित कर देते हैं। (सो क्या कहूँ) सूर्योदय (के बाद) की ओस के समान मान नहीं जान पड़ता। (समझ में नहीं आता, कैसे गायब हो जाता है।)

खिचैं मान अपराध हूँ चलि गै बढ़ैं अचैन।
जुरत दीठि तजि रिस खिसी हँसे दुहुँन के नैन॥४६१॥

अन्वय—दुहुँन के नैन मान अपराध हूँ खिचैं, अचैन बढ़ैं चलि गै, दीठि जुरत रिस खिसी तजि हँसे।

अचैन = बेचैनी। जुरत = जुड़ते। दीठि = नजर। खिसी = लाज।

दोनों के नेत्र पहले मान और अपराध के कारण (नायिका के मान और नायक के अपराध के कारण) ही खिंचे रहे—तने रहे। किन्तु बेचैनी बढ़ते ही (एक दूसरे से मिलने को) चल दिये और नजर जुड़ते (आँखें चार होते) ही क्रोध एवं लाज छोड़कर दोनों के नेत्र हँस पड़े (खिल उठे)।

नभ लाली चाली निसा चटकाली धुनि कीन।
रति पाली आली अनत आए बनमाली न॥४६२॥

अन्वय—नभ लाली निसा चाली चटकाली धुनि कीन, बनमाली न आए, आली अनत रति पाली।

नभ = आकाश। चटकाली = पक्षियों का समूह। रति पाली = प्रेम का पालन किया, समागम या विहार किया। आली = सखी। अनत = अन्यत्र।

आकाश में लाली छा गई, रात बीत गई, पक्षि-समूह चहचहाने लगा, (किन्तु) कृष्णजी न पाये। हे सखि! (मालूम पड़ता है कि) उन्होंने कहीं अन्यत्र प्रेम का पालन किया (विहार किया)।

दच्छिन पिय ह्वै बाम बस बिसराँई तिय-आन।
एकै बासरि कैं बिरह लागी बरष बिहान॥४६३॥

अन्वय—दच्छिन पिय ह्वै बाम बस तिय-आन बिसराँई, एकै बासरि कैं बिरह बरष बिहान लागी।