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बिहारी-सतसई
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नीठि नीठि उठि बैठि हूँ प्यौ प्यारी परभात।
दोऊ नींद भरैं खरैं गरैं लागि गिर जात॥३७२॥

अन्वय—प्यौ प्यारी परमात नीठि नीठि उठि बैठि हूँ दोऊ खरैं नींद भरैं गरैं लागि गिर जात।

नीठि नीठि = बड़ी मुश्किल से। प्यौ = पिय, प्रीतम। परभात = प्रभात, प्रातः। खरैं = अत्यन्त। गरैं लागि = गले से लिपटकर।

प्रीतम और प्यारी (दोनों) प्रातःकाल बड़ी-बड़ी मुश्किल से उठ बैठते भी हैं। (और पुनः) दोनों अत्यन्त नींद में भरे होने के कारण (परस्पर) गले से लिपटकर (सेज पर) गिर जाते हैं।

नोट—नेवाज कवि भी एक ऐसे ही सुरति-श्रान्त दम्पति का वर्णन करते हैं—"छतिया छतिया सों लगाये दोऊ दोऊ जी में दुहूँ के समाने रहैं, गई बीत निसा पै निसा न गई नये नेह में दोऊ बिकाने रहैं; पट खोलि 'नेवाज' न भोर भये लखि द्योस को दोऊ सकाने रहैं, उठि जैबे को दोऊ डराने रहैं लपटाने रहैं पट ताने रहैं।"

लाज गरब आलस उमग भरे नैन मुमुकात।
राति रमी रति देति कहि औरै प्रभा प्रभात॥३७३॥

अन्वय—लाज गरब आलस उमग भरे नैन मुसुकात प्रभात और प्रभा, राति रमी रति कहि देति।

गरब = अभिमान। उमग = उत्साह। राति रमी रति = रात में किया गया समागम। औरै = और ही, विचित्र, अनोखा। प्रभा = छबि छटा।

लज्जा, अभिमान, आलस्य और उमंग से भरे (तुम्हारे) नेत्र मुसकुरा रहे हैं। प्रातःकाल की (तुम्हारी) यह अनोखी छटा रात में किया गया सभागस (स्पष्ट) कहे देती है।

कुंज-भवनु तजि भवनु कौं चलियै नंदकिसोर।
फूलति कली गुलाब की चटकाहट चहुँ ओर॥३७४॥

अन्वय—नंदकिसोर कुंज-भवनु तजि भवनु कौं चलियै गुलाब की कली फूलति चटकाहट चहुँ ओर।