पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/१७

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वास्तव में बिहारीलाल ने साहित्य के आदि-रस को परिपुष्ट और काव्य- रसिकों को परितुष्ट करने में कमाल किया है । आदि-रस के उर्वर क्षेत्र में मृदु-भावों की भागीरथी प्रवाहित करके उन्होंने उसे कैसा शस्य-श्यामला-संपन्न बनाया है, यह देखकर किस सहृदय के नेत्र तृप्त नहीं होते ? अपनी कविता में आदि रस को उन्होंने अमृत का घुट पिलाकर ही छोड़ा है । उनके रसोले भावों, तुले हुए चुनिन्दे शब्दों और ध्यानातीत कल्पनाओं की बारीकी तो देखिए, कैसी अनोखी सझ है, कितनी गहरी पैठ है, कैसी सहृदय-हृदयाह्लादक स्वाभाविकता है --

खेलन सिखए अलि भलैं, चतुर अहेरी मार ।
कानन-चारी नैन-मृग, नागर नरनु सिकार ॥
पत्रा ही तिथि पाइयै, वा घर कै चहुँ पास ।
नित प्रति पून्यौई रहत, श्रानन-ओप उजास ॥
मानहु बिधि तन-अच्छ-छबि, स्वच्छ राखिबै काज ।
दृग-पग पोंछन को करे, भूपन पायन्दाज ।।
भूषन भारु सँभारिहै, क्यों इहिं तन सुकुमार ।
सूधे पाइ न धर परै, सोभा ही कैं भार ॥
पति रितु औगुन गुन बढ़तु, सानु माह कौ सोत ।
जातु कठिन हे अति मृदौ, स्वनी-मन-नवनीतु ।।
तंत्री-नाद कवित्त-रस, सरस राग रति-रंग ।
अनबूड़े बूड़े तरे, जे बूढ़े सब अंग ।।
मकराकृति गोपाल कै, सोहत कुंडल कान ।
धत्यौ मनौ हिय-गढ़ समरु, ड्योढ़ी नसत निसान ॥
नहि हरि-लौं हियरी धरौं, नहि हर-नौ अरधंग।
एकत ही करि राखियै, अंग-अंग प्रत्यंग ।।
अधर धरत हरि कै परत, मोठ-डीठि पट जोति ।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्र-धनुष रंग होति ।।