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सटीक : बेनीपुरी
 

उठान = घावा। गोड निबाहैं = (१) छिपाकर निबाहने से (२) छिपाकर 'गोल' (लक्ष्य) तक ले जाने से। चौगान खेल = घोड़े पर चढ़कर गेंद खेलना।

रसयुक्त (पुष्ट) और मिलनसार चित्त-रूपी घोड़े के अनेक अनेक धावे कर-करके छिपा-छिपाकर निर्वाह करने ('गोल' लक्ष्य तक ले जाने) से ही प्रेम-रूपी चौगान के खेल में जीत सकोगे।

दृग मिहचत मृगलोचनी भन्यौ उलटि भुज बाथ।
जानि गई तिय नाथ के हाथ परस ही हाथ॥३५१॥

अन्वय—दृग मिहचत मृगलोचनी भुज उलरि बाथ मस्यौं हाथ परस ही तिय जानि गई नाथ के हाथ।

दृग = आँख। मिहचत = मूँदना। मृगलोचनी = वह स्त्री जिसके नेत्र मृग के नेत्र से बड़े-बड़े हों। बाथ = अँकवार। परस = स्पर्श।

आँखें मूँदते ही-ज्यों ही प्रीतम ने पीछे से आकर उसकी आँखें बन्द कीं—त्यों ही उस मृगलोचनी ने (अपनी) भुजाएँ उलटकर उसे (निस्संकोच) अँकवार में भर लिया। (क्योंकि) हाथों के स्पर्श होते ही युवती जान गई कि (ये) प्रीतम के ही हाथ हैं।

प्रीतम दृग मिहचत प्रिया पानि-परस सुखु पाइ।
जानि पिछानि अजान लौं नैंकु न होति जनाइ॥३५२॥

अन्वय—प्रिया दृग मिहचत पानि-परस सुस्नु पाइ प्रीतम जानि पिछानि आन लौं नैकु न जनाइ होति।

पानि-परस = पाणि-स्पर्श, हाथ का स्पर्श। पिछानि = पहचानकर। अजान = अज्ञ, अनभिज्ञ। लौं = समान। नैंकु = जरा, तनिक। न होति जनाइ = प्रकट नहीं करता, परिचय नहीं बतलाता।

प्रिय (नायिका) द्वारा आँखों के वन्द किये जाने पर (उसके कोमल) हाथों के स्पर्श का सुख पाकर प्रीतम (उसे मजी भाँति) जान और पहचानकर भी अजान के समान तनिक प्रकट नहीं होता (यह प्रकट नहीं करता कि तू कौन है, क्योंकि कर-स्पर्श-जन्य सुख मिल रहा है।)