नोट—पत्थर के परस्पर टकराने से आग पैदा होती है।
लाज-लगाम न मानही नैना मो बस नाहिं।
ए मुँहजोर तुरंग ज्यौं ऐंचत हूँ चलि जाहिं॥२४७॥
अन्वय—लाज-लगाम न मानही नैना मो बस नाहिं। ए मुँहजोर तुरंग ज्यौं एऐंचत हूँ चलि जाहिं।
मो=मेरे। मुँहजोर=शोख, निरंकुश, लगाम की धाक न माननेवाला। तुरंग= घोड़ा। ज्यौं=समान। ऐंचत हूँ=खींचते रहने पर भी।
लाज-रूपी लगाम को नहीं मानते। नेत्र मेरे वश के नहीं हैं। ये मुँहजोर घोड़े की तरह (लगाम) खींचते रहने पर भी (बढ़ते ही) चले जाते हैं।
इन दुखिया अँखियानु कौं सुखु सिरज्यौई नाहिं।
देखैं बनैं न देखतै अनदेखैं अकुलाहिं॥२४८॥
अन्वय—इन दुखिया अँखियानु कौं सुखु सिरज्यौई नाहिं। देखैं न देखतै बनैं, अनदेखैं अकुलाहिं।
सिरज्यौई नाहिं=सृष्टि ही नहीं हुई, बनाया ही न गया। देखते=देखते हुए, देखने के समय।
इन दुखिया आँखों के लिए सुख की सृष्टि ही नहीं हुई। (अपने प्रीतम को) देखते समय (तो इनसे) देखा नहीं जाता—प्रेमानन्द से इनमें आँसू डबडबा आते हैं, फलतः देख नहीं पातीं—(और उन्हें) बिना देखे व्याकुल-सी रहती है।
नोट—भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इसपर एक कुंडलिया यों है—
बिन देखे अकुलाहि, बावरी ह्वै ह्वै रोवैं।
उघरी उघरी फिरी, लाज तजि सब सुख खोवैं॥
देते श्रीहरिचन्द नयन भरि लखैं न सखियाँ।
कठिन प्रेमगति रहत सदा दुखिया ये अँखियाँ॥
लरिका लैबै कैं मिसनु लंगर मो ढिग आइ।
गयौ अचानक आँगुरी छाती छैलु छुवाइ॥२४९॥