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बिहारी-सतसई
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जौ लौं लखौं न कुल-कथा तौ लौं ठिक ठहराइ।
देखैं आवत देखिही क्यों हूँ रह्यौ न जाइ॥२३१॥

अन्वय—जो लौं न लखौं तौ लौं कुल-कथा ठिक ठहराइ। देखैं आवत देखिही क्यौं हूँ न रह्यौ जाइ।

लौं=तक। लखौं=देखू। कुल-कथा=कुल की कथा, सतीत्व आदि की बातें। देखिही=देखने से ही। क्यौं हूँ=किसी प्रकार।

जबतक (उन्हें) नहीं देखती हूँ, तभीतक कुल की कथा ठीक ठहरती है—अच्छी जँचती है, (किन्तु जब) वे देखने में आते हैं—वे दिखलाई पड़ते हैं (तब) देखे बिना किसी प्रकार नहीं रहा जाता—बरबस उन्हें देखना ही पड़ता है।

बन-तन कौं निकसत लसत हँसत हँसत इत आइ।
दृग-खंजन गहि लै चल्यौ चितवनि-चैंपु लगाइ॥२३२॥

अन्वय—वन तन कौं निकसत लसत हँसत-हँसत इत आइ। चितवनि-चैंपु लगाइ दृग-खंजन गहि लै चल्यौ।

बन-तन=बन की ओर। इत=इधर। दृग=आँख। चितवनि=नजर, दृष्टि।चैपु=लासा, गोंद।

वन की ओर निकलते समय सुशोभित हो (बन-ठन) कर हँसते हँसते इधर आये और दृष्टि-रूपी लासा लगा (मेरी) आँख-रूपी खंजन को पकड़कर ले चले!

चितु-बितु बचतु न हरत हठि लालन-दृग बरजोर।
सावधान के बटपरा ए जागत के चोर॥२३३॥

अन्वय—चितु-बितु न बचतु हठि हरत लालन-दृग बरजोर। ए सावधान के बटपरा जागत के चोर।

चितु=मन। बितु=धन। लालन=कृष्ण। दृग=आँखें। बरजोर=जबरदस्त। बटपरा-बटमार, राहजन, ठग।

मन-रूपी धन नहीं बचता। हठ करके (वे) छीन लेते हैं। कृष्ण के नेत्र बड़े जबरदस्त हैं। ये चौकन्ने आदमी के लिए तो (भूल-भुलैया में डालकर