पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/११

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निवेदन

जब हम १६०३ में शिवहर में पढ़ते थे, हमें पारितोषिक-रूप में अन्य पुस्तकों के साथ बिहारी-सतसई की भी एक प्रति मिली थी । उस समय हम उसका रस नहीं चख सकते थे, इसलिए हमने उसे आलमारी में डाल दिया । जब पटने पढ़ने गये, तब सतसई पर कभी-कभी दृष्टि पड़ने लगी । धीरे-धीरे सुधा का स्वाद मिलता गया और अधिक-अधिक चखने का चस्का लगता गया । यों दिन रात, सप्ताह, महीने और बरस बीत चले । दस-से-बीस और फिर बीस-से-तीस पर आये । सदा इसी चिन्ता में रहे कि आज इसकी टीका लिखते हैं और कल छपती है। इसी बीच, एक नहीं, दो नहीं, बल्कि कई टीकाएँ निकल गई । इनमें से कोई भी सुलभ और सब तक पहुँचनेवाली नहीं ठहरी । हम चुप्पी साधे रहे । पाठ्य पुस्तकों के लिखने से छुट्टी भी नहीं थी कि कलम चलाते । इसी बीच एक विद्वान् सतसई-सेवी से भेंट हुई । टीका तैयार करने में उन्होंने भी कई बरस लिये । टीका तैयार भी हुई तो एक पोथा ! सुलभ मूल्य में उस टीका को कोई प्रकाशक नहीं निकाल सकता । धीरे से वह भविष्य के लिए रख छोड़ी गयी ।

फिर प्रिय मित्र 'रामवृक्ष' से भेंट हुई । उसने सतसई के दोहरों पर अपनी सूझ की परीक्षा दी । हम लट्टू हो गये ! बोले--'फुर्सत नहीं कि सतसई की हृतंत्री पर हाथ फेरें, तुम रसिक युवक हो, तुम्ही फेर देखो, शायद तुम्हारे कुछ हाथ आये ।' उसने सहर्ष स्वीकार किया और अपनी रसशता, मर्मज्ञता और सहृदयता से हमें मुग्ध कर दिया ।

कापी तैयार होने पर पढ़ने लगे । अपनी योग्यता के अनुसार हमने कापी ध्यान से देखकर, जहाँ आवश्यक समझा, उचित संशोधन कर दिया । आद्योपान्त सम्पादन कर कापी प्रेस में भेज दी ।