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बिहारी-सतसई
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देह से सटा हुआ निकट ही उसका पति था, तो भी (वह) प्रेम निबाहकर नीची निगाह से ही इधर कनखियों से देख गई।

हौं हिय रहित हई छई नई जुगुति जग जोइ।
आँखिन आँखि लगै खरी देह दूबरी होइ॥२२१॥

अन्वय—जग नई जुगुति जोइ हौं हिय हई छई रहति। आँखिन लगै आँखि, खरी दूबरी होइ देह।

हौं=मैं। हई=आश्चर्य। छई=छाई हुई। जुगुति=युक्ति। जोइ=देखकर। आँखिन=आँखों से। खरी=अत्यन्त।

संसार में यह नई युक्ति देखकर मैं तो हृदय में आश्चर्य से छाई रहती हूँ— मेरा हृदय आश्चर्य में डूबा रहता है। आँखों से लगती हैं आँखें और अत्यन्त दुबली होती है देह।

प्रेमु अडोलु डुलै नहीं मुँह बोलैं अनखाइ।
चित उनको मूरति बसी चितवनि माँहिं लखाइ॥२२२॥

अन्वय-प्रेमु अडोलु डुलै नहीं मुँह अनखाइ बोलै। चित उनकी मूरति बसी चितवनि माँहि लखाइ।

अडोलु=दृढ़, अटल। अनखाई=अनखाकर, झुँझलाकर। चितवनि=आँख, नजर। लखाइ=देख पड़ती है।

प्रेम स्थिर है, वह हिलने-डुलने का नहीं—समझाने-बुझाने से छूटने का नहीं। (प्रेम छोड़ती नहीं, उलटे) मुँह से अनखाकर बोलती है। (उसके) चित्त में उनकी—नायक की—मूर्ति बसी है (जो) उसकी आँखों में (स्पष्ट) दीख पड़ती है—उसकी प्रेमरंजित आँखों के देखते ही प्रकट हो जाता है कि वह किसीके प्रेम में फँसी है।

चितु तरसतु न मिलतु बनत बसि परोस कैं बास।
छाती फाटी जाति सुनि टाटी ओट उसास॥२२३॥

अन्वय—चित तरसतु परोस कैं बास बसि मिलतु न बनत टाटी ओट उसास सुनि छाती फाटी जाति।

उसास=उच्छ्वास, जोर-जोर से साँस लेना।