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बिहारी-रत्नाकर

राEk वे द्वार भी ड्योढ़ी कहलाते हैं। कान की बनावट भी वैसी ही घुमाव फिराव की होती है, अतः कवि ने कान को ड्योढ़ी माना है । ॥ लसत = विलास करता है, लहराता है, फहराता है ॥ निसान ( फ़ा० निशान )= निशान उस ध्वजा को कहते हैं, जिस पर उसके धारण करने वाले का कोई चिह्न बना रहता है । कामदेव की ध्वजा पर मछली अथवा मकर बना हुआ माना जाता है, और इसी से उसका नाम मीनकेतु, मकरध्वज इत्यादि है । ( श्रवतरण ) सखी नायक के पास हो कर आई है, और नायिका का वर्णन सुन कर नायक पर कामदेव का जो प्रभाव पड़ा है, उसका वर्णन करती है कि उसके हृदय को कामदेव ने वशीभूत कर लिया है, जिसका प्रमाण यह है कि कंप साविक के कारण उसके कुंडल थहरा रहे हैं। ( अर्थ )--[ हे सखी1 गोपाल के कानों में मकराकृति कुंडल [ ऐसे ] शोभित हैं, मानो हृदयरूपी देश को कामदेव ने विजय कर लिया है, [ सो उसके ] निशान ड्योढ़ी पर फहरा रहे है । कान की उपेक्षा ड्योढ़ी से करने से यह व्यंजित होता है कि कामदेव के हृदय-देश में प्रवेश करने के मार्ग कान ही हैं, अर्थात् नाय पर कामदेव का प्रभाव गुणश्रवण ही द्वारा हुआ है । जिन पाँच पुस्तकों के आधार पर दोहाँ के पाठ शुद्ध किए गए हैं, उनके अनुसार तो इस दोहे का यही पाठ शुद्ध ठहरता है । अतः यही पाठ इस संस्करण में रखा गया है । पर अनवरचंद्रिका, कृष्ण कवि की टीका, अमर-दि का, लाःल-चंद्रिका तथा श्रृंगारसप्तशती के अनुसार इसका पाठ एकाध शब्द के हेरफेर से यह ठहरता है मकराकृति गोपाल के सोइत कुंडल कान । धस्य मनौ हियघर समरु, ड्योढ़ी जसप्त निसान ॥ हरिप्रकाश-टीका तथा रसचंद्रिका में ‘घर’ के स्थान पर ‘गढ़' पाठ है । इन पुस्तकों के पार्टी पर ध्यान देने से जान पड़ता है कि बिहारी ने यही पाठ लिखा होगा, और प्राचीन पुस्तकों में ‘वस्य’ तथा 'घर' के स्थान पर धबौ’ तथा धर, लेखों के प्रमाद से, लिख गया होगा , क्योंकि धस्यौ’ तथा चपी’ एवं ‘घर’ तथा ‘धर' के लिखने तथा पढ़ ने, दोनों ही मैं धोखा हो सकता है। इस पाठ के अनुसार यह अर्थ होता है गोपाल के कार्यो में मकराकृति कुंडल [ऐसे ] शोभित हैं, मानो कामदेव [ उनके ] हदय मंदिर मैं पैठ गया है, [और उसका] निशान पोदी पर फहराता है । इस पाठ में भी भावार्थ वही रहता है । खौरि-पनिच भृकुटी-धनुषु बाधि0 समरूताकि कानि । हन तरुन-चुंग तिलक-सर सुरक-भाल, भरि तानि ॥ १०४ ॥ बौरि-—दौरि श्रथवा खौर उस भाड़े तिलक को कहते हैं, जो बीच में से खुरचा हुआ होता है। पनिच ( पतंचिका ) = धनुष की ज्या । खौरि-पनिच-इस समस्त पद में बहुत्रीह समास है । इसका अर्थ 'खौरि है पनिच जिसमें ऐसा होता है । यह पद कुटीधनुषु का विशेषण है ॥ बाधिक = व्याघ, शिकारी ॥ कानि= रुकावट, रोक-टोक ॥ सुरक-सरक नाक पर के उस तिलक को कहते हैं, जो माल की आकृति १. मृगु ( १ )। २. भाल ( , ५ )।