पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/९०

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बिहारी-रत्नाकर

बिहार-चार विज्ञाज=(१ ) चंद्रमा ।(२ )त्राह्मण द्विराजकुल ८ (१ ) चंद्रवंश, यदुवंश । श्रीकृष्णचंद्र का अवतार. यदुवंश में, जो कि चंद्रवंश की एक शाखा है, हुआ था । (२ ) ब्राह्मणवंश । कवि का जन्म बात-में हुआ था ॥ सुबल ( स्ववश ) अपने वश से, अपनी इच्छा से ॥ केसव ( केशव ) भगवान् श्रीकृष्णचंद्र ॥ केसवाह ( केशवराय )= बिहारी कवि के पिता ॥ ( अवतरण —कवि, श्रीकेशव भगवान का रूपक अपने पिता केशवराय से कर के, उनसे अपने क्षेत्रों को दूर करने की प्रार्थना करता है । पिता से रूपक इसलिए किया है कि पिता संत म का दु:ख स्व भाव ही से हरता है ( अर्थ –के विजराज ( १० चंद्रमा 1 २. ब्राह्माण ) के कुल में प्रगडे , [ और ] आमनी इच्छा से राज में आकर बसे हुए केशवरायरूपी केशव ( मेरे लिए पिता के तुल्य केशव भगवान ), मेरे सब क्लेश इसे ॥ g-. केसरि के सरि क्याँ स) चंपई कितंश अन्यु । गातरूणु लाखि जातु दुरि जातरूप कौ रू ॥ १०२ ॥ केसरि= कुंकुम ॥ सरि= सादृश्य, बराबरी ॥ कित कु = कितना ॥ अन्= जलप्राय, जल वाला श्री पानी वालाआबदार संस्कृत में इस शब्द का अर्थ जलप्राय है । बिहारी ने "सी से इसको यहाँ पानी। वाला, अर्थात् सुंदरके अर्थ में प्रयुक्त किया है। भाषा में इसका प्रयोग सामान्यतः अनुपम के स्थान पर होता है ॥ जातरूप =सुवर्ण । जातरूप का धावधे जन्म से सुंदर होता है । यह शब्द यहाँ साभिप्राय प्रयुक्त हुआ है। इसका भाव यह है कि सुवर्ण भी, जो कि सहज ही सुंदर है, उसके रूप के आगे फीका पड़ जाता है तो फिर और की क्या बात है । ( अवतरण ) नायिका की गुरई की प्रशंसा सखीनायक से करती है, अथवा नायक स्वगत कहता है ( अर्थ )ई उसके रूप की ] बराबरी केसर कयाकर कर सकती है, [ और ] चंपक. कितना आबदार है,[ जो उसकी बराबरी कर सके ]। [ उसके ] शरीर का सौंदर्य देख और [ तो ] जातरूप ( स्वर्णजो कि स्वभाव ही से युवर है) का रूप [ भी ] छिप जाता ( फीका पड़ जाता ) है ॥ मकरकृति गोपाल के सोहत कुंडल कान। धौभनौहिय-घर समरुजैकलीं लसत निसान 7 १०३ ॥ मकराकृति = मकर की आकृति के एक प्रकार का कुंडल मकर श्रथवा मछली के आकार का होता है। कुंडल व कानों ’ में पहनने का -भूषण विशेष । उसके मकराकृतिहोने के कारण कवि ने उसकी उपेक्षा कामदेव के निशान से की है ॥ धौ= पकड़ा, अपने अधिकार में किया ॥ दियधर= हृदयरूपी धरा अर्थात् देश ॥ समर स्मर ) = कामदे ॥ ड्यौढ़ी राज तथा अन्य धानिकों के द्वारों’ पर, मीतर की ओर दो मी इस प्रकार ड्योढ़ कर के बनाई जाती हैं कि बाहर से भीतर का सामना नहीं पड़ता । इन्ह ड्योढ़ी मीत के कारण १० किति (१)। २. मनौ धरथ (२ ), धस्यौ (५ )। ३. द्वारे (४ )।